श्री साई ज्ञानेश्वरी – भाग 5

श्री सदगुरू साईनाथाय नम: ।।।। द्वितीय: अध्याय – कर्म| |
श्री साईं ज्ञानेश्वरी का द्वितीय अध्याय ‘कर्म’ है।

इस अध्याय में सदगुरू श्री साईनाथ महाराज नेनाना साहब चांदोरकर को कर्मा का महत्व बताया है।

कर्म दो प्रकार के होते हैं—सत्कर्म और दुष्कर्म |इंसान की मनोवृत्ति उससे सही या गलत कर्म कराती है।
कर्म के अनुसार ही कर्मफल तैयार होते हैं।कर्मा का फल सभी को भोगना पड़ता है।

कोई भी शरीरधारी इससे बच नहीं सकता |कर्मफल जनम-जनम तक प्राणी का पीछा करता है।कर्मफल को भोगने के लिए प्राणी को बार-बार जन्म लेना पड्धता है।
क्या मनुष्य की सांसारिक यात्रा यूँ ही चलती रहेगी?क्या आत्मा बार-बार चोला बदलती रहेगी?व्यावहारिक जीवन में हमें क्या करना चाहिए, ज्ञान के साथ कर्म और भक्ति का संतुलन हमें कैसे बनाना चाहिए, साई बाबा चांदोरकर जी को क्‍या उपदेश देते हैं, वे हमें भव के उस पार ले जाने में कैसे सहायता करते हैं, आइये, इसे जानने के लिए हम श्री साईं ज्ञानेश्वरी के द्वितीय अध्याय ‘कर्म’ का पारायण करते हैं।
कर्म जगत का धर्म है, कर्म बड़ा बलवान |कर्मों का फल पाएगा, करम गती पहचान। |कर्म लकीरें खींचता, लिखता यह तकदीर |कर्मों से ही बनते हैं, राजा रंक फकीर। |
नाना साहब चांदोरकर श्री साई के चरणों की वंदना करते हें। वे बाबा से कहते हैं–
“हे साईनाथ! आप हमें ऐसा उपदेश दीजिए, जिससे हम सब का कल्याण हो, इसके लिए आप हमारा मार्गदर्शन कीजिए |
सदगुरू श्री साईनाथ महाराज कहते हैं–
“है नाना! इंसान को यह देह प्रारब्ध के अनुसार मिली है, संचित कर्मफलों का भोग यह देह ही करेगी |
इस देह पर कर्मफलों की सत्ता है।
इस बात का हमेशा ध्यान रखो कि कर्म में ही शक्ति होती है, कर्म ही बलवान होते हैं, कर्म ही संचित होते हैं।
कर्म ही नई शाखा को जन्म देते हैं यानि कर्म ही तुम्हारे आगे के जन्मों का कारण बनते हैं।

अतः: कर्मों के प्रति हमेशा सजग रहो |
सुख-दुख का अंत होने पर मुक्त-स्थिति आती है,संचित कर्मा के समाप्त होने पर मुक्ति प्राप्त होती है।
उस स्थिति को प्राप्त करने का क्या उपाय है, उस स्थिति में हम कैसे पहुँच सकते हैं, हे नाना! अब मैं तुम्हें उसका तरीका बताऊँगा |
कोई व्यक्ति जहर पी लेता है और मर जाता है, यह उसका प्रारब्ध नहीं है।
यह तो जहर पीने का परिणाम है।
यह तो उसके कार्य का अंजाम है।
कर्त्ता को अपने कार्य की निष्पत्ति मिलती ही है।
यदि कोई चोरी करता है तो यह उसका प्रारब्ध नहीं, यह उसके पूर्वजन्म के संचित कर्मों का फल नहीं।
यह तो वर्तमान में उसके द्वारा किया गया गलत कर्म है। इसकी सजा उसे अवश्य भोगनी पड़ेगी |
सहज गति से जो कुछ घटित होता है, वह हमारे प्रारब्ध के अनुसार घटित होता है, वह संचित कर्मों के फल के रूप में हमारे जीवन में आता है। हम अपनी इच्छा से जो कार्य घटित करते हैं, वह हमारा प्रारब्य नहीं हे।
मालिक को अपदस्थ करके या मालिक की हत्या करके एक किरानी मालिक का पद हथिया लेता है। यह उसका भाग्य या प्रारब्ध नहीं है।
इस दुष्कर्म का फल उसे भोगना पड़ेगा, इस कर्म का परिपाक उसका आगामी प्रारब्ध बनेगा। किरानी पद हथिया कर धनी बन जाता है, अब वह चैन की बंशी बजाता है, गाड़ी-घोड़े में बैठकर कहीं आता-जाता है, अब वह धन-संपत्ति का भोग करता है, अब वह सुखी हो गया है। किरानी ने धोखे से जो घात-कर्म किया है, उससे उसने पाप अर्जित किया है।
यह पापकर्म उसके इस जन्म के कत्यों में जुडेगा, अतीत और वर्तमान के संचित कर्म भविष्य में उदय में आएँगे, अगले जन्मों में उसे इनके फल भुगतने पड़ेंगे।इस जन्म में अर्जित किए हुए कर्मों को भोगने के लिएउसे पुनर्जन्म लेना पड़ेगा ।
जो बुद्धिमान हैं, वे इस ज्ञान को समझते हैं, मूर्ख को इसे समझने का क्‍या प्रयोजन?प्रारबद्ध के कारण उसे मानव-जीवन मिला था,प्रारबद्ध के कारण उसे किरानी का पद मिला था,उसका वह प्रारब्ध शेष रह जाता है, उस शेष के कारण उसे आगे पुनः जन्म लेना पड़ता है। शेष प्रारब्य के भोग के लिए वह अगले जन्म की तैयारी कर लेता है।
हे नाना! ऐसा करते रहने से जन्म-मरण की यात्रा चलती रहेगी, संसार में आने-जाने का क्रम लगा ही रहेगा ।
स्नातक की डिग्री प्राप्त करके कुछ लोग उच्च पदों पर काम करते हैं, कुछ लोग संसार में घूम-घूम कर उपदेश और व्याख्यान देते हैं, कुछ लोग योगी और संन्यासी बन जाते हैं, कुछ लोग दुकान पर बैठकर दुकानदारी करने लगते हैं, कुछ लोग विद्यालयों में शिक्षक बन जाते हैं।
योगी, शिक्षक, दुकानदार, व्याख्यानकर्त्ता, अधिकारीसभी ने एक जैसी शिक्षा प्राप्त की है, सभी ने डिग्री प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत की है, फिर भी, सभी के अलग-अलग कार्य-दक्षेत्र क्यों?
हे नाना! यह उनके शारीरिक प्रयत्न का योग नहीं,यह तो उनके भाग्य का फल है।’
साईं बाबा के अमृत-वचन सुनकर नाना साहब बोले-
“हे नाथ! चोरी करने से व्यक्ति चोर होता है और यह उसके कर्मों का फल है। इसे केवल शारीरिक प्रयत्न क्यों कहें? क्या हम इसे उसका कर्मजन्य फल नहीं कह सकते? क्या यह उसका भाग्य नहीं? हे बाबा! आप मुझे यह सब समझाएँ |”
अपने प्रिय भक्त के ऐसे वचन सुनकर श्री साई बोले–
“अपने चित्त को स्थिर करो और मेरी बात ध्यान से सुनो । हे कुलभूषण चांदोरकर! तुम अत्यन्त सज्जन व्यक्ति हो ।
तुम भले इंसान हो परन्तु कभी-कभी भोली-भाली बातें करने लगते हो। भोलापन त्यागो और मेरे वचनों पर अच्छी तरह से विचार करो | कई लोग वास्तव में चोर होते हैं।
वे पकड़े जाने के बाद भी शीघ्र ही छूट जाते हैं। क्योंकि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं होता । ऐसा उसके प्रारब्ध के कारण होता है। कोई चोर है और जेल में बन्द है।
कोई चोर है और वह स्वतंत्रतापूर्वक खुला घूमता है। संसार में कर्म के अनुसार फल मिलता है, यह तय है। जो स्वतंत्रतापूर्वक खुला घूम रहा है, उसे कर्म के अनुसार फल क्‍यों नहीं?
दोनों ने चोरी की है, दोनों के कर्म गलत हैं, फिर एक को कैद क्‍यों और दूसरे को आजादी क्‍यों?


ऊँ सद्गुरू श्री साईनाथाय नम:  © राकेश जुनेजा के अनुमति पोस्ट किया गया 

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