श्री साईं ज्ञानेश्वरी : भाग 2

भाग 2
वंदना

गणनायक गणराज तुम, कहते तुम्हे गणेश |
प्रथम वंदना आपको, किरपा करो अशेष || (विनायक)
लिखते हैं जब ग्रंथ को, करके तुमको याद |
मंगल सरिता काव्य की, करती कल-कल नाद।। (विनायक)
माँ! तेरे आशीष से, वीणा में झंकार |
वाणी का वरदान दो, गूँजे स्वर के तार।। (शारदे)
बसकर मानस में करो, शब्दों का संचार |
मुखरित कर संसार को, भरो ज्ञान-भंडार | | (शारदे)
भरती हिय में भारती, मंगल भाव अपार |
करती कविता आरती, बहती सरिता धार।। (शारदे)
सदगुरू ब्रह्मा होत है, सद्गुरू विष्णु महेश |
सद्गुरू साईनाथ हैं, पार-ब्रह्म-परमेश | | (ओ बाबा)
साई सिरजनहार हैं, साई पालनहार |
सबका मालिक है वही, वन्दन बारम्बार || (ओ बाबा)
सद्गुरू साई दीजिए, बस इतना अवदान |
अपने मुख से कर सकेँ, ज्ञानेश्वरी गुणगान।। (ओ बाबा)
विघ्न हरो, मंगल करो, जग में तेरा नाम |
आप संवारों काज सब, सद्गुरू साई राम।। (ओ बाबा)||
श्री सदगुरू साईनाथाय नम:

अथ श्री साई ज्ञानेश्वरी प्रथम: अध्याय ||

श्री साई ज्ञानेश्वरी का प्रथम अध्याय ज्ञान है। इस अध्याय में नाना साहेब चाँदोरकर और साईनाथ महाराज का संवाद हे। नाना साहेब चाँदोरकर साईनाथ महाराज के परम भक्त हैं। वे शास्त्रों के ज्ञाता हैं, उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, डिप्टी कलक्टर के पद पर रह चुके हैं। उन्होंने लम्बे समय तक यह दुनिया देखी है। सांसारिक जीवन में उन्होंने यह अनुभव किया कि इस संसार में सुख तो बहुत कम है, कदम-कदम पर दुख-ही-दुख है। वे सांसारिक जीवन से थक गये हैं|
जीवन–संग्राम में दुख के थपेड़े उन्हें परास्त कर रहे हैं| उनका मन संसार से उब गया है। वे अपने जीवन को एक सार्थक और सही दिशा देना चाहते हैं। अतः वे संसार से विमुख होकर सद्गुरू साईनाथ की शरण में आते हैं।
नाना साहेब का जीवन आगे चलकर कौन-सी करवट लेता है, उनकी जीवन-नैया आगे किस दिशा में जाती है, सद्गुरू साईनाथ पतवार थामकर उनके जीवन को किस ओर मोठड़ते हैं,बाबा उनका क्या मार्गदर्शन करते हैं,आइये, इसे जानने के लिए हम ‘श्री साई ज्ञानेश्वरी’ के प्रथम अध्याय ‘ज्ञान’ का पारायण करते हैं।

साई ज्ञान का पुंज है, साई सूर्य महान।
साई के आलोक से, जगमग सकल जहान।।
जीवन नैया डोलती, झूठा यह संसार |
सागर पार उतारती, साईं की पतवार ||

नाना साहेब चांदोरकर साई बाबा के पास आते हैं, श्री चरणों की वंदना करके वे कहते हैं— “हे सदगुरू श्री साईनाथ! में आपसे कृतार्थ होना चाहता हूँ। आप पूर्ण हैं, मैं अपूर्ण हूँ। आप मेरी जीवन-नौका की पतवार अपने हाथों में लें। मैं अपने-आप को आपके श्री चरणों में समर्पित करता हूँ।

श्री साई के शरणागत होकर नाना साहब चांदोरकर कहते हैं- “हे सदगुरू श्री साईनाथ! मैंने शास्त्रों में संसार का वर्णन पढ़ा है। यह संसार निःसार है, ऐसा शास्त्रों में बताया गया है। माया की श्रृंखलाओं में यहाँ हर इंसान जकड़ा हुआ है|
मैं भी इन श्रृंखलाओं में पूरी तरह जकड़ गया हूँ। हे दीनबंधु! आप मेरी इन श्रंंखलाओं को तोड़ें, आप मुझे माया की जंजीरों से मुक्त करें| हे नाथ! इस संसार में इंसान सुख की तलाश करता है, लेकिन उसे कदम-कदम पर दुख ही मिलता है। मैं इस संसार में इसका अनुभव कर चुका हूँ। सुख की आशा में मैं जगह-जगह भटकता रहा
लेकिन कदम-कदम पर मुझे दुख ही मिला। इस संसार में सुख तो नाम-मात्र का है, चारों ओर तो दुख के काँटे बिछे हुए हैं। हे साईनाथ! इन काँटों की पीड़ा से मेरा हृदय छलनी-छलनी हो गया है। इन कॉटों की चुभन ने मेरी जीवन-शक्ति को परास्त कर दिया है। मैं इन काँटों से अब सम्बन्ध रखना नहीं चाहता । हे साईनाथ! आप मुझे इन काँटों से बाहर निकालें |

नाना के ऐसे नेक वचन सुनकर श्री साई हँसने लगे। श्री साई ने कहा–“हे नाना! मोह को दूर करने वाले ज्ञान को जान। ज्ञान की धारा को अपने हृदय में उँडेल | ज्ञान के प्रकाश को अपनी अंतर्रत्मा में उतार | इस संसार में तुमने जो अनुभव किया, वह सही है। यहाँ दुख का कोई ओर-छोर नहीं, सुख तो यहाँ जरा-सा है। जबतक देह रहेगी, तब-तक जीवन में दुख आते ही रहेंगे | इस संसार में दुख गहराई तक समाया हुआ है। इससे कोई भी नहीं बच सकता | फिर भला तुम इससे कैसे बच सकते हो?

यह नए-नए रूप धर कर इंसान को कष्ट देता है। मैं भी इससे नहीं बच सकता | तुम्हारे साथ यह किसी रुप में है,
तो मेरे साथ यह किसी अन्य रूप में है। इस संसार में जिसने शरीर धारण किया है,उसे यह प्रभावित, पीडित एवं प्रताड़ित करता ही हेै। हमारे मन में मनोविकारों की तरंगें उठती हैं । काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, मत्सर आदि मनोविकार हमारे मन को प्रभावित करते हें। ये मनोविकार आपस में एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। ये हमारे सांसारिक जीवन के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं| ये प्राणियों को शीघ्र ही अपना गुलाम बना लेते हैं।

जिस प्रकार से तरल पदार्थ बहता है, उसी प्रकार से मनोविकार की धारा प्रवाहित होती है। हमारे कान इन्हें ध्वनि के रूप में ग्रहण करते हैं। हमारी जीभ रसना के रूप में इसका सेवन करती है। मनोविकारों के तरल जल पर संसार की नाव चल रही है। हमारा मन जो-जो कार्य-व्यापार करता है, उसी ओर सांसारिक जीवन की नाव का संचार होता है।
हमारा शरीर भी उसी के अनुसार गति करता है। हमारे कार्य-व्यापार अच्छे भी होते हैं, बुरे भी होते हैं इस संसार का स्वरूप सही और गलत दोनों के मिश्रण से बना हे। इन दोनों से ही सांसारिक बंधन बनता है, जो तोड़ने पर भी नहीं टूटता। हे नाना! तुम घर-गृहस्थी वाले इंसान हो | पत्नी, पुत्र, पुत्री आदि रिश्ते-नाते तुम्हारे सांसारिक जीवन में अवश्य होंगे ।

तुम रिश्तों का निर्वाह कर रहे होगे। साथ ही, रिश्तों के निर्वाह में कठिनाई का भी अनुभव कर रहे होगे। पत्नी, पुत्र, पुत्री, भाई, भतीजे, भांजे, मित्र, रिश्तेदार आदि से तुम्हें कष्ट भी मिलता होगा। रिश्ते-नातों में बँधने के बाद तुम इस संसार से मुक्त नहीं हो सकते |”

सदगुरू श्री साई के वचनों को सुनकर नाना साहब कहते हैं- “हे श्री साई! मैं यह संसार समेटना चाहता हूँ, इसके अतिरिक्त मेरी और कोई इच्छा नहीं है। इस फैले हुए संसार को समेटें, क्योंकि इसमें तरह-तरह के दुख हैं ।
अब तक मेरा संसार निर्धारित था, ईश्वर की व्यवस्था के अंतर्गत संचालित था। इस संसार में किसी का कोई उपाय नहीं चलता । सभी ने अपना संसार फैला रखा है। इस संसार को समेटना ही एकमात्र विकल्‍प हे, आप इस कार्य में मेरी सहायता करें |”

श्री साई ने हँस कर नाना से कहा– “हे नाना! अपनी यह स्थिति तुमने खुद ही निर्मित की है। अपनी इच्छानुसार चलकर अब तुम इस मुकाम तक पहुँचे हो | अब कष्ट क्‍यों हो रहा है? पूर्वजन्मों के संचित कर्मा के अनुसार,
उससे निर्मित प्रारब्ध के अनुसार तुम्हारा यह शरीर है। प्रारब्थ के अनुसार ही यह शरीर बनता है। प्रारब्ध ही हमारे शारीरिक स्वरूप का मूल कारण है। प्रारब्ध को भोगने के लिए ही यह देह है। तुम कोई भी तरकीब लगा लो,इससे बच नहीं सकते | कर्मो के कारण, कर्मफल का भोग करने के लिए,प्राणी को जन्म लेना पड़ता है। प्राणियों की योनियाँ अनेक हैं, प्राणियों की स्थिति भिन्‍न-भिन्न है |

कोई मनुष्य है तो कोई घोड़ा, बैल, लोमगडी, मोर, बाघ, गेंडा, क॒त्ता, बिल्ली,सूअर, लकड़बग्घा, सॉँप, बिच्छू, चील या चींटी | इंसानों में भी कोई अमीर-गरीब है, कोई उच्च-नीच है तो कोई प्रपंची, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी या संन्यासी |
इन सभी में एक अस्तित्व बसा हुआ है, इन सभी के अस्तित्व का मूल कारण प्राण है। यह प्राण मनुष्य, पशु, पक्षी, जीव, जंतु सभी में है। प्राण हर प्राणी में एक जैसा है, एक समान है। हे नाना! एक बात पर गौर करो | हर प्राणी का शारीरिक स्वरूप भिन्न-भिन्न है, संसार में ऐसा हमें दिखाई पड़ता है। ऐसा क्‍यों है? प्राण-तत्व सभी में एक समान है पर शारीरिक स्वरूप भिन्न-भिन्न क्‍यों? हमारे संचित कर्म बलवान होते हैं, संचित कर्मों के कारण ही हर प्राणी का शारीरिक स्वरूप भिन्न-भिन्न होता हे।

हे नाना! प्राणियों के अलग-अलग वर्गीकरण दिखाई पड़ते हैं। जिसका जैसा वर्ग है, उसका वैसा ही लक्षण है।
क॒छ प्राणियों के स्वभाव क्रूर हैं और उनकी स्थिति दुखद है। कुछ प्राणियों के स्वभाव मृदु हैं और उनकी स्थिति सुखद है। बाघ या शेर मास खाता है, सूअर विष्ठा एवं त्याज्य पदार्थ खाता है,लकड़बग्घा जमीन में गड़े हुए सड़े-गले शव खाता है।

वर्ग के अनुसार ही प्राणी का स्वभाव बन जाता है। राजहंस कमल के मुलायम पत्ते खाता है, चील-गिद्ध मृत शरीर खाता है, शरीर का जैसा स्वभाव होता है, वैसा ही प्राणी का खान-पान होता है। प्राणी की जेसी योनि होगी, वैसा ही उसका कार्य होगा,यही इस संसार की निश्चित रीति है। प्रारब्ध के अनुसार देह मिलती है, जो कर्म-फल भोगती है।
इसमें कमी-बेसी नहीं होती |

क॒छ शेर-बाघ ऐसे होते हैं जो जंगल में उन्मुक्त विचरण करते हैं । कुछ शेर-बाघ ऐसे होते हैं जो दरवेशियों की जंजीर से बँधे होते हैं,वे कभी इस द्वार पर जाते हैं तो कभी उस द्वार पर,वे उदर-पूर्ति के लिए दर-दर भटकते फिरते हैं।
धनवान लोगों के पालतू कुत्ते मुलायम गद्दों पर सोते हैं,कुछ कुत्ते रोटी के एक टुकड़े के लिए गली-गली भटकते हैं ।
कुछ गायों को खाने के लिए घास, चारा और दाना मिलता है,क॒छ गायों को पेड़ की पत्तियाँ चबानी पड़ती हैं,कुछ गायों को सुबह से शाम तक खाने के लिए एक तिनका भी नहीं मिलता, कछ गायें कड़े-कचरे के ढेर पर सूखी पत्तलें चाटती हैं।

इस संसार में किसी को कम मिलता है तो किसी को अधिक | किसी को खाने के लिए अच्छे पदार्थ नसीब होते हैं,किसी को सूखे चने चबाने पड़ते हैं, तो किसी को वह भी नसीब नहीं होता | संचित कर्मों को पूर्ण रूप से भोगे बिना त्रिकाल में छुटकारा नहीं मिलता । ईश्वर के न्याय के कारण ही कोई गरीब है तो कोई अमीर, कोई भाग्यशाली है तो कोई अभागा। किसी के पास संपन्‍नता का ओर-छोर नहीं, तो किसी को भिक्षा माँगने पर रोटी का टुकड़ा भी नसीब नहीं ।

ऊँ सद्गुरू श्री साईनाथाय नम:
© राकेश जुनेजा के अनुमति पोस्ट किया गया

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