श्री साई ज्ञानेश्वरी – भाग 10

।| श्री सदगुरू साईनाथाय नमः
अथ श्री साई ज्ञानेश्वरी चतुर्थ अध्याय: |

।श्री साई ज्ञानेश्वरी का चतुर्थ अध्याय ‘भगवद्भक्ति’ है।


ईश्वर के प्रति झुकाव एवं मन में ईश्वर के प्रति लगाव पैदा होना ही भगवद्भक्ति’ है।इस अध्याय में श्री साई के साथ उनके भक्तों के चार संवाद हैं ।श्री साई ने बताया है कि शुद्ध भक्ति करें,भक्ति करने का अधिकार सभी को है,सच्चे सद्गुरू की भक्ति करें एवं निष्ठा एवं इमानदारी के साथ भक्ति करें |भक्ति की सीढ़ी ही इंसान को भगवान तक पहुँचाती है।


इस अध्याय में सर्वप्रथम “श्री साई चाँद पाटील संवाद है।इस संवाद में सद्गुरू श्री साई भक्‍त के मन में विश्वास पैदा करते हैं।विश्वास से श्रद्धा उत्पन्न होती है,श्रद्धा से आस्था जागृत होती है,आस्था के कारण मनुष्य आराध्य के सामने मस्तक झुकाता हैऔर आराध्य की भक्ति में मन को लीन करता है।बाबा हिदायत देते हैं कि भौतिक पदार्थों का मोह त्यागना आवश्यक है|मन जब भौतिकता के माया-जाल से दूर होता है,तभी व्यक्ति ईश्वर की सत्ता का भानऔर उनके स्वरूप का ध्यान कर सकता है।तभी भगवद्भक्ति संभव है |

श्री साई चाँद पाटील संवाद


आइये, अब हम “श्री साई चाँद पाटील संवाद” का पारायण करते हैं |


जंगल-जंगल घूमकर, कर पाया न तलाश |खोई घोड़ी ना मिली, चाँद उदास निराश ।।


एक दिन एक यवन व्यक्तिऔरंगाबाद जिले के घने जंगलों से होकर गुजर रहा था।उसका नाम चाँद पाटील था।उसकी घोड़ी खो गई थीऔर वह जंगल-जंगल भटक कर उसकी तलाश कर रहा था। चाँद पाटील ने एक वृक्ष के नीचे एक नवयुवक फकीर को देखातो वह आश्चर्यचकित रह गया।उसके मन में खयाल आया-“अरे। इस निर्जन घने जंगल में यह फकीर!वह भी कच्ची उम्र का नवयुवक!कहीं यह अनाथों की माँ तो नहीं,कहीं यह बेसहारों को सहारा देने वाला तो नहीं ।”

चाँद पाटील के मन में दूसरा खयाल आया-“यह सूनी डगर, यह घना जंगल,इस निर्जन में मनुष्य का क्‍या काम?अवश्य ही, यह मनुष्य नहीं है।कहीं यह कोई यक्ष या वनदेव तो नहीं!कहीं यह भूत-पिशाच या राक्षस तो नहीं!कहीं मनुष्य के रूप में यह कोई व्यन्तर तो नहीं |”

चाँद पाटील ने फिर सोचा-“इस निर्जन जंगल में मनुष्य का होना संभव नहीं।मेरे सामने तो कोई दुर्भाग्य ही खड़ा है।अब मेरे ऊपर शीघ्र ही कोई आघात होनेवाला है।अब मैं कैसे प्राण बचाऊ?’यह सोचकर चाँद पाटील पीछे मुड़ा और वहाँ से भागने को तत्पर हुआ। चाँद पाटील को पीछे मुड़ते देख फकीर ने उसे आवाज लगाई और कहा-“अरे! मैं कोई भूत-प्रेत नहीं |में वनदेव या यक्ष भी नहीं ।सच्चाई तो यह है कि मैं एक गरीब फकीर हूँ ।इस सूने जंगल में पेड़ के नीचे आ बेठा हूँ।अपने मन में किसी तरह का भय और संशय मत रखो |इधर आओ, मेरे पास बैठो। हम दोनों बैठकर चिलम पिएँगे।”

फकीर के ऐसे वचन सुनते ही चाँद पाटील का भय कम हुआ।उनको ऐसा लगा, जैसे किसी सघन समस्या से ग्रस्त होते-होते,वे बाल-बाल बच गये हों।

चाँद पाटील सकृचाते हुए फकीर के पास आए।फकीर के करीब बैठकर उन्होंने तम्बाकू का चूरा-चूरा कियाऔर उसे चिलम में भरा |फिर उन्होंने चिलम पर छापी लपेटी |उन्होंने फकीर से कहा-“चिलम भरकर तैयार हैकिन्तु जलते हुए कोयले की कमी है।वैसे, में अग्नि प्रजजलित करने वाला चकमक पत्थरहमेशा अपने साथ रखता हूँ.परन्तु इस बार मैं उसे अपने घर पर ही छोड़ आया।अब उसका इन्तजाम आप ही करें|”

चाँद पाटील की बात सुनकर फकीर के चेहरे पर मुस्कराहट आ गईऔर उसने हँसते हुए कहा-“तुम सांसारिक लोग हो।तुम्हारे जीवन में हमेशा हीकुछ-न-कुछ अड़चनें लगी रहती हैं ।तुम्हारे पास खुद के सुख नहीं,तुम्हारे पास जो सुख दिखाई पड़ते हैं,वे सारे उधार लिए हुए हैं।तुम हर दिन दूसरों की सहायता के मुँहताज रहते हो।तुम्हें देखकर मुझे ऐसा लगता है किजैसे तुम्हारा इस धरती पर जन्म लेना ही बेकार हो ।”

आगे फकीर ने कहा-“आग का आदि-स्रोत सूर्य है,सूर्य के तेज की शक्ति अखिल ब्रह्मांड में व्याप्त है।फिर आग प्राप्त करने के लिए चिन्ता कैसी?”

इतना कहकर फकीर ने अपने हाथ का चिमटा जमीन पर जोर से पटका,जमीन से अग्नि का अंगार प्रकट हुआ |उन्होंने अंगारे को चिलम पर रखा |कपड़े की छापी दूर फेंक दी ।ऐसा करते समय फकीर ने धिककार पूर्ण मुद्रा व्यक्त की |

इंसान सिफ इंसान ही बना रहना चाहता हे।वह अपनी अल्पशक्ति तक ही सीमित रह जाता है।इंसान यदि प्रयास करे तो वह भगवान भी बन सकता हैऔर अनंत शक्तियाँ भी हाशिल कर सकता है,परन्तु अफसोस!इंसान सांसारिक पदार्थों में उलझ कर रह गया है,उसे इस जगत में आकर जिन शक्तियों का विकास करना था,उस दिशा में वह कदम नहीं बढ़ाता, अग्रसर नहीं होता।अत: फकीर धिक्कार के साथ यह खेद व्यक्त करता है।

चाँद पाटील ने फकीर की शक्ति को पहचाना।उसका मन आश्चर्यचकित रह गया।उसने सद्भाव एवं आदर के साथ फकीर के चरणों में सर झुका दिया।चाँद पाटील ने कहा-“हे महाराज! आपमें विशेष शक्ति है।आप अलौकिक ताकतों के अधिकारी हैं |आप साक्षात्‌ ईश्वर के प्रतिनिधि हैं, एक पैगम्बर हैं ।मेरा यह सौभाग्य है कि मेरी आपसे भेंट हुई।”

चाँद पाटील बोले-“हे शक्ति-संपन्‍न! मैं चार दिनों से जंगल-जंगल भटक रहा हूँ।भूखा-प्यासा अपने घोड़े को दूँढ रहा हूँ।मेरा घोड़ा चार सौ रूपये का था,वह तुर्की नस्ल का, तेज गति से चलने वाला,एक बार में चालीस कोस की दूरी तय करनेवाला था,वह घोड़ा अनेक गुणों से सम्पन्न था।ऐसा घोड़ा मिल पाना ही बड़ा कठिन है।मैंने वह घोड़ा खो दिया है।घोड़े के लापता हो जाने से मैं बिल्कुल ही दुखी हो गया हूँ।मुझे तो खाना-पानी भी अच्छा नहीं लग रहा।चार दिनों से मैंने पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं डाला है।मे भटक-भटक कर थक गया पर घोड़े को दूँढ नहीं पाया।जब तक वह घोड़ा मुझे नहीं मिल जाता,तब तक मेरी इच्छा चिलम पीने की भी नहीं है।”

फकीर ने पाटील को कहा-“हे भले आदमी! सब्र रखो ।तुम सामने वाली झाड़ी के पास जाओ,वहाँ जाकर सामने देखो,वहाँ तुम्हारा घोड़ा घास चर रहा है।तुम्हारा खोया घोड़ा तुम्हें मिल जाएगा। मामूली से घोड़े के लिए तुम लोग इतने दुखी हो जाते हो?तुम लोग सांसारिक जीव हो,तुम लोग नाशवान व अस्थायी वस्तुओं के प्रति बेहद मोह रखते हो।

तुम्हारा बच्चा थोड़ी देर के लिए इधर-उधर चला जाता है तोउसकी खोज में तुम गली-गली खाक छानते फिरते हो |तुम्हारी पत्नी यदि घर छोड़कर चली जाती है तोउसके गम में तुम आँखें भर-भर कर आँसू छलकाते हो ।छोटा-मोटा दुख आते ही अपना सर पकड़कर बैठ जाते हो।

तुम्हारे घर में यदि चोरी हो जाए तोतुम छाती पीट-पीट कर रोते हो ।अगर तुम्हारे घर में आग लग जाती है तोतुम गले में शंख डालकर चिल्लाते होऔर पूरे गाँव को इकट्ठा कर लेते हो ।’

फकीर ने कहा- “अरे मनमौजी चाँद भाई!यह संसार माया से उत्पन्न है, यह माया का ही प्रतिरूप है|तुम माया में मन को उलझाए जा रहो हो।ब्रह्मांड की जिसने रचना की है,उस अल्ला-इलाही के बारे में मन में ध्यान करो,उसे समझने की कोशिश करो,उस परवरदिगार ईश्वर को कभी मत भूलो।

वह ईश्वर इस संसार का मूल स्रोत है, आदि कारण है,वह समस्त सुखों का सागर है, वही एकमात्र सत्य है।उसकी खोज क्‍यों नहीं करते?सुख-सागर की तलाश न करके आखिर तुम किसकी तलाश कर रहे हो?

लाभ और हानि एक-दूसरे के सापेक्ष हैं,इन दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध है।ये एक-दूसरे पर निर्भर हैं।एक को समझे बिना दूसरे के महत्व को नहीं जान सकते |ग्रीष्म ऋतु में गर्मी पड़ती है, इसके बाद वर्षा की ऋतु आती है।गर्मी की तपन के बाद ही वर्षा का महत्व जाना जा सकता है।ग्रीष्म और वर्षा एक-दूसरे के सापेक्ष हैं|एक के महत्व को जाने बिना दूसरे के महत्व को नहीं जाना जा सकता ।|
अरे चाँद भाई!तुम एक घोड़े के लिए इतनी चिंता कर रहे हो!क्या तुमने कभी ईश्वर को खोजने की थोड़ी-सी भी चिन्ता की है?उसके लिए क्‍या तुम्हारे मन में थोड़ी-सी भी हलचल पैदा हुई है?निरर्थक की तलाश तुम करते फिरते हो,सत्य की तलाश करते समय मौन और खामोश हो जाते हो?तुम सिंह के बच्चे को छोड़कर बकरी के बच्चे की इच्छा क्‍यों करते हो?’

फकीर के ऐसे वचनों को सुनकर चाँद पाटील खामोश हो गये ।फिर वे बोले- “हे ज्ञान-संपन्‍न फकीर!आप ज्ञान के भंडार हैं।आपके अदभुत ज्ञान की प्रशंसा कर पाने में में सक्षम नहीं ।मेरे शब्दों में इतनी सामर्थ्य नहींकि वह आपके अगाध ज्ञान की प्रशंसा कर सके |” इतना कह कर चाँद पाटील झाड़ी की तरफ गये।वहाँ उनका घोड़ा हरी-हरी घास चर रहा था।पाटील ने अपना घोड़ा पकड़ लिया।घोड़ा पाकर पाटील के मन में अद्भुत आनंद भर गया।

जिस प्रकार से पत्नी के ऋतुमती होने पर पति प्रसन्न होता हैऔर जिस प्रकार सूखे खेतों पर वर्षा पड़ने से किसान प्रसन्न होता है,वैसे ही खोया घोड़ा प्राप्त होने पर चाँद भाई प्रसन्न हुए ।एक हाथ से घोड़ा पकड़े चाँद पाटील फकीर के पास आए।उन्होंने आदर के साथ उनके सामने मस्तक झुकाया।

चाँद पाटील बोले- “हे समर्थ!आप इस निर्जन में क्‍यों बैठे हैं?आप मेरे साथ चलें, मेरे घर को पवित्र करें, वहीं रहें |अब आप मेरे अनुरोध पर किसी तरह की आपत्ति न करेंऔर मेरे यहाँ ही बसेरा करें।”

चाँद पाटील के आग्रहपूर्ण वचन सुनकर नवयुवक फकीर हँसने लगा।फकीर ने कहा- “हे चाँद भाई!में ठहरा एक फकीर।! रमता जोगी हूँ मैं।मुझे गाड़ी-घोड़े और आलीशान बंगलों से क्‍या प्रयोजन?वैसे, आज में तुम्हारे घर नहीं चल सकता |आज ऐसा कर पाना मेरे लिए संभव नहीं ।तुम बार-बार आग्रह मत करो |में शायद कल या फिर कभी तुम्हारे यहाँ आऊंगा |

चाँद पाटील ने फकीर को प्रणाम कियाऔर घोड़े पर सवार होकर उल्लासपूर्वक अपने घर प्रस्थान किया ।

दूसरे दिन फकीर चाँद पाटील के गाँव धूपखेड़ा में पधारे |उनके दर्शन के लिए सारा धूपखेड़ा गाँव उमड़ पड़ा |हिन्दू और मुसलमान–दोनों जाति के लोगों नेकृपा-मूर्ति फकीर को मस्तक झुकाया।मुसलमानों ने उन्हें ‘एक पहुँचा हुआ औलिया’ माना |हिंदुओं ने उन्हें ‘सद्गुरू महाराज’ के रूप में स्वीकार किया।दोनों जाति के लोगों ने उनके पावन चरणों मेंअपनी-अपनी श्रद्धा और भक्ति-भावना व्यक्त की |


फकीर कुछ समय तक चाँद पाटील के घर रहे ।बाद में चाँद भाई की पत्नी के भतीजे की शादीशिरडी ग्राम की लड़की के साथ तय हुई।शादी में बारात के साथ फकीर धूपखेड़ा से शिरडी आए |खंडोबा मंदिर के पुजारी म्हालसापति नेफकीर का स्वागत करते हुए उन्हें आओ साईं” कहकर संबोधित किया।इसके बाद फकीर का यही नाम प्रचलित हो गया।


श्री साई शिरडी की धरती पर क्‍या आए,शिरडी की धरती का कण-कण धन्य हो गया ।श्री साई के चरणों का स्पर्श पाकर शिरडी का जर्र-जर्रा पावन हो गया,शिरडी का सौभाग्य-सितारा ही चमक उठा।दूसरे शब्दों में कहें तो शिरडी गोकुल के समान पूज्य एवं महिमामंडित हो गई |


कृष्ण ने मथुरा में जन्म लिया थाऔर वे रहने के लिए गोकल में आ गये थे।इसी प्रकार से श्री साईं धूपखेड़ा में प्रकट हुए थेपरन्तु शिरडी को उन्होंने अपना स्थायी बसेरा बना लिया।कृष्ण को पाकर गोकल धन्य हुआऔर श्री साई को पाकर शिरडी धन्य हो गई |


धूपखेड़ा प्रकट हुए, सुन्दर तरूण फकीर |पारस-परस से खिल गई, शिरडी की तकदीर ।।

म्हालसापति श्री साई संवाद


इस अध्याय में दूसरा संवाद “म्हालसापति श्री साई संवाद” है।
इस संवाद में सदगुरू श्री साई यह व्यक्त करते हैं किमंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरूद्वारा आदिअलग-अलग प्रकार के देवस्थान हो सकते हैं,परन्तु इनमें रहनेवाला ईश्वर एक ही है।लोगों ने अपनी मानसिकता के अनुसारईश्वर का आवास-स्थान बनाया, ईश्वर का नाम रखा।ईश्वर का चाहे कोई भी स्वरूप क्‍यों न हो,कोई भी नाम क्‍यों न हो,ईश्वर तो एक ही है।


कोई भी व्यक्ति ईश्वर की भक्ति कर सकता है।उच्च-नीच, अमीर-गरीब, हिन्दू-मुसलमान–सभी ईश्वर भक्ति के पात्र हैं,ईश्वर सभी की भक्ति को स्वीकार करता है।


आइये, अब हम “म्हालसापति श्री साई संवाद” का पारायण करते हैं–
मुस्लिम जैसा साई का, लगता सूरत वेश।यह देवालय हिन्दु का, कर सकते न प्रवेश |।


शिरडी में खंडोबा देव का मन्दिर था, इस मंदिर के पुजारी म्हालसापति थे।मंदिर में देव-दर्शन के लिए भकतगण आते रहते थे।श्री साई खंडोबा मंदिर में खंडोबा देव के दर्शन करने गये।मंदिर के पुजारी म्हालसापति ने उन्हें देखा और कहा–“हे साई! आप इस मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते।|यह हिन्दुओं का मंदिर है, यह एक देवस्थान है।आप शकक्‍्ल-सूरत से मुसलमान लगते हैं।अत: आप मस्जिद में या ताकिया पर इबादत के लिए जाएँ ।”


म्हालसापति के ऐसे वचन सुनकर श्री साई आश्चर्यचकित रह गये ।उन्होंने म्हालसापति से कहा-“हे ज्ञानी पुजारी! हिन्दू तथा मुसलमानदोनों जाति के लोगों को बनानेवाला ईश्वर तो एक ही है।हिन्दू और मुसलमान–यह तो केवल शब्दगत विभेद है।ईश्वर में विश्वास करने वाले सज्जन पुरूष इस प्रकार के भेदों को महत्व नहीं देते |


हर व्यक्ति को अपने पंथ के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिए |हर व्यक्ति को अपने पंथ के रीति-रिवाजएवं विधि-विधान के अनुसार आचरण करना चाहिए।इसमें शिथिलता नहीं बरतनी चाहिए, नियमों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए |सभी को अपने-अपने आराध्य में उस एक ही सच्चिदानंद के दर्शन करने चाहिए |”


श्री साई ने कहा-“जिसे मुसलमान अल्ला-इलाही कहते हैं,उसे हिन्दू शेषशायी कहते हैं, तुम उसे खंडोबा के रूप में जानते हो |अनेक रूपों में वह एक ही है, जो सभी जगह व्याप्त है।


तुम खंडोबा के संदर्भ में विचार करो |तुम खंडोबा से अपनी वाणी द्वारा एक प्रश्न पूछो |उन्होंने गडेरिया जाति की बाणू नामक कन्या के साथ शादी क्‍यों की?


इसपर यदि तुम सघनता से विचार करोगे तोतुम्हें इसका सार-तत्व प्राप्त होगा ।मूलतः जो सार-तत्व है, वह यही है कि जो ज्ञानी पुरूष होते हैं,वे किसी तरह के भेद-भाव को महत्व नहीं देते |इस धरती पर जहाँ कहीं भी मंदिर हैं या मस्जिद है,सज्जन लोग उसमें से किसी का भी तिरस्कार नहीं करते |वे दोनों पूज्य स्थलों का समान रूप से आदर करते हैं।”


श्री साईं ने म्हालसापति से कहा-“मैं दूर से ही देव-दर्शन कर लेता हूँ।तुम्हारे पंथ के विधान के अनुसार मेरा प्रवेश वर्जित है,अतः: तुम्हारे पंथ के विधान का आदर करते हुएमें मंदिर के भीतर आने की हरकत नहीं करूँगा ।


तुम्हारे पुराणों में एक कथा है।चोखा महार नाम का एक व्यक्ति पंढ़रीनाथ को अति-प्रिय था।महार नीच जाति है परन्तु चोखा महार अपने सुकृत्यों एवं सद्‌गुणों के कारणपंढ़रीनाथ के द्वार तक पहुँचने में सफल हो गया था।जिसका अन्तर शुद्ध है, वह नीच जाति का होकर भी पवित्र है, पावन है।


श्री साई के ऐसे वचन सुनकर म्हालसापति का हृदय असीम आनंद से भर गया।श्री साई के चरणों में सादर नमन करके उन्होंने कहा-“यह मेरे पुण्य कर्मो का योग है कि मेरी मुलाकात आप जेसी ज्ञानमूर्ति से हुईं ।आपसे निवेदन है कि आप अब इसी शिरडी गाँव में स्थायी रूप से रहें ।’


श्री साईं ने म्हालसापति से कहा- “एवमस्तु |”इसके बाद श्री साईं ने म्हालसापति क॑ साथ शिरडी गाँव में प्रवेश किया ।गाँव में एक टूटी-फूटी वीरान मस्जिद थी,म्हालसापति श्री साईं को लेकर वहाँ आए।श्री साई ने इसी मस्जिद में अपना आसन जमा दिया।


मसजिद जर्जर खंडहर, पंछी करत बसेरा।साईं ने आकर यहीं, डाला अपना डेरा।।

गंगागीर श्री साईसंवाद


इस अध्याय में तीसरा संवाद “गंगागीर श्री साईसंवाद” है।इस संवाद में यह भावना व्यक्त की गईं है किभक्त को सदगुरू की परख और पहचान करनी चाहिए,झूठे एवं ढ़ोंगी गुरूओं के पीछे भटक-भटक कर अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए |

सद्‌गुरू सुयोग से मिलता है,सद्गुरू का सानिध्य मिल जाए तो सच्चे हृदय से उसकी भक्ति करनी चाहिए ।ईश्वर आध्यात्मिक उत्थान के लिए सदगुरू को धरती पर भेजता है।

सद्गुरू भक्ति में लगनेवाले लोगों को अमृत का पान कराने के लिए तत्पर हैं|जो लोग भक्ति में नहीं लगते,अकरणीय कार्यों में संलग्न रहते हैं, असत्य की जय-जयकार करते हैं,उन्हें भी सद्गुरू सन्‍्मार्ग दिखाकर भगवद्भक्ति में लगाने का प्रयास करते हैं।

आइये, अब हम “गंगागीर श्री साई संवाद” का पारायण करते हैं।

साई सच्चे संत हैं, गंगा-नीर समान |हर पौधों को सींचते, सद्गुरू को पहचान। |साई सुमेरू ज्ञान कं, बोले गंगागीर |शीशे का टुकड़ा नहीं, यह कोहि-नूर हीर ||साई की अवहेलना, ना करना नादान |साई दीनानाथ हैं, साई ईश समान।।

एक दिन श्री साई कुंए से पानी निकाल रहे थे,उस समय गंगागीर नामक एक ज्ञानी संत की नजर उनपर पड़ी |गंगागीर पारखी थे |उन्होंने शिरडी के लोगों को इकट्ठा किया और उन्हें कहा-“अरे शिरडी-वासियों।तुम लोग कितने बेपरवाह हो!क्या तुम्हारी आँखें इस रत्न को नहीं देखती?क्या तुम अपने गाँव में रहने वाले अनमोल हीरे को नहीं परख सकते?तुम लोग कितने पागल हो!झूठे साधुओं के चक्‍कर में तुम जंगल-जंगल भटकते फिरते होऔर सच्चे साधु को न पहचान कर उसे उपेक्षित कर देते हो ।’

गंगागीर ने आगे कहा-“तुम्हारे सामने जलेबी एवं करंज्या जैसे स्वादिष्ट मिष्ठान्न रखे हुए हैं,उन्हें क्यों नही चखते, उन्हें खाकर तृप्त क्यों नहीं होते?इन पदार्थों के सुलभ होने के बावजूदतुम सूखी रोटी के लिए दर-दर भिक्षा क्‍यों माँग रहे हो?गंगा का जल तुम्हारे पास है,फिर तुम कुए का पानी सेवन करने का इरादा क्‍यों रखते हो?
साधु-संत रूपी गगन में श्री साईं ज्ञान के प्रखर सूर्य हैं ।वे संसार के सभी पर्वतों में विशाल हिमगिरि के समान हैं।इस संसार के कोटि-कोटि लोगों में वे सर्वश्रेष्ठ हैं।

वर्तमान में जितने भी साधु-संत हैं,उन सभी साधु-संतों की विशाल श्रंंखला में वे मेरूमणि के समान हैं ।तुम गॉव-गाँव भटक कर सच्चे साधु की खोज करते फिर रहे हो,तुम्हारे गाँव में जो सर्वोत्तम संत है, उसे पहचानो |यदि तुम उसे नहीं पहचानते, तो यह समझो कि तुम उसका अपमान कर रहे हो |

तुम सर्वोत्तम संत श्री साईं का रंच-मात्र भी तिरस्कार न करो,उनकी उपेक्षा न करो |वही संत तुम सभी के लिए कल्याणकारी सिद्ध होंगे।जिस राज्य की प्रजा अपने राजा को संतुष्ट एवं प्रसन्‍न नहीं रख सकती,उस राज्य की प्रजा कभी भी सुखी और खुशहाल नहीं हो सकती |”

शिरडीवासियों को श्री साईं के संदर्भ मेंजानकारी देने के बाद गंगागीर मस्जिद में पहुँचे |श्री साईं ने उन्हें देखकर प्रसन्नता व्यक्त की |गंगागीर ने भी श्री साई को देखकर अपना हार्दिक आनंद व्यक्त किया।

श्री साईं ने गंगागीर से हँसते-हँसते कहा-“आज तो मंदिर ही स्वयं चलकर मस्जिद तक आया है।आज भेद-भाव को बिल्कूल परे रखकर एक ज्ञानी ब्राह्मणमुझ जैसे फकीर से मिलने मस्जिद में पधारे हैं।आज तो गरूड़राज स्वयं किसी राजहंस के घोंसले की शोभा बढ़ाने आए हैं|

आपका यहाँ पधारना शुभ है।आपने यहाँ आकर सदभावना का परिचय दिया है।सच्चाई तो यह है कि आपका और हमारा घराना एक ही है।आप एक ज्ञानी संत हैं, मैं एक फकीर |हम दोनों पहले कभी एक ही वैकुंठ में रह चुके हैं।ईश्वर ने हम दोनों को इस मृत्यु-लोक में भेजा है।इस संसार में जो भेद-भाव व्याप्त हो रहा है,उसे मिटाने के लिए और जन-जन को सुपथ पर अग्रसर करने के लिएईश्वर ने हमें इस संसार में उतारा है।

श्री साई ने बताया-“मैं लोगों से गोरस ग्रहण करने की पेशकश करता हूँ।लोग मेरी आवाज सुनकर मेरे पास आते हैं ।वे मेरे सर पर रखे गोरस के घट को देखते हैंऔर खिलखिलाकर हँसने लगते हैं।वे कहते हैं कि देखो! यह संत व्यक्ति क्या लेकर आ गया!उनमें से कोई-कोई व्यक्ति तो पत्थर उठा लेता हैऔर गोरस के पात्र पर दे मारता है।कोई-कोई व्यक्ति तो हँसते-हँसते यह कहने लगता हैकि ऐ फकीर साईनाथ!तुम यह गोरस का पात्र लेकर यहीं खड़े रहो,जब मेरी मृत्यु हो तो दो-चार बूँद मेरे मुँह में डाल देना।

मेरे अनुरोध पर एक व्यक्ति भी गोरस का पान करने के लिए तैयार नहीं होता ।उल्टे वे मुझे कहते हैं कि तुम हमारी शिंदी का एक-दो घूँट पीकर तो देखो!आज इस शिंदी का नाम चारों तरफ गूँज रहा हैऔर यह सारा संसार शिंदी के पीछे भाग रहा है।शिंदी का प्याला ही आज महत्वपूर्ण एवं महिमामंडित है,दूध के प्याले को तो आज कोई पूछ ही नहीं रहा।मैं तो इस निराले संसार का यह अनोखा स्वांग देख रहा हूँ।मुझे लगता है कि वर्तमान समय में इस संसार के लोगहमारी बात को थोड़ा-मोड़ा मानने में भी कतराएँगे, ऐसा मेरा खयाल है।आप का इस संदर्भ में कैसा अनुभव है?

श्री साई के वचन सुनकर गंगागीर ने कहा-“आज जगह-जगह पर ताड़ के पेड़ों के घने जंगल व्याप्त हैंऔर उनकी शोभा भी निराली है।इन ताड़ के पेड़ों का रस शराब के रूप में बेचने के लिएगाँव-गाँव में, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दुकानें खोल दी गई हैं।यहाँ नित्य चहल-पहल बनी रहती है।लोग शिंदी को दिल खोलकर अपना रहे हैंऔर इसके रंग से अपने अंग-अंग को मस्ती के रंग में रंगते जा रहे है।शिंदी की मस्ती के बाद वे आनंद से मग्न होकर इतना कोलाहल करते हैं,जिससे सारा आसमान गूंज उठता है, दसों दिशाएँ ध्वनित हो उठती हैं|

वर्तमान समय में वातावरण में यह शमां हैऔर ऐसे समय में ईश्वर ने हमें और तुम्हेंसर पर गाय के शुद्ध दूध का घड़ा रखकर धरती पर भेजा है।साथ ही, ईश्वर ने हमें यह आदेश दिया हैकि लोगों को जल्दी-जल्दी गोरस का पान करवाओ |”

श्री साई ने कहा-“मेरे अनुरोध पर किसी-किसी ने थोड़ा दूध ग्रहण कियापरन्तु उस दूध के पौष्टिक तत्व से वे पागल हो गये,उनका मस्तिष्क मानो शिथिल पड़ गया।उन्होंने फिर से शिंदी का प्याला हाथ में थाम लिया।आज के समय की यह अद्भुत रीत है।

हम हाथ में अमृत का प्याला लेकर संसार के पास जाते हैंऔर कहते हैं कि इसे पीकर तुम अमर बनो।किंतु हमारी बात लोग इस कान से सुनते हैंऔर उस कान से निकाल देते हैं।वे हमें कहते हैं किउन्हें तो शिंदी का ही प्याला चाहिए,भले ही उसे पीकर उन्हें मौत ही क्‍यों न आ जाए।लोग सत्य के अमृत का पान ही नहीं करना चाहते,वे सत्य का तनिक भी आदर नहीं करना चाहते,सभी असत्य की जय-जयकार करने में लगे हुए हैंऔर असत्य की झूठी पताकाएँ लहाराने में मग्न हें |”

गंगागीर ने कहा-“मैंने भी कई बार ऐसा ही अनुभव किया।मेने भी कई बार लोगों को सन्मार्ग पर लाने की कोशिश की।मैंने कुछ अच्छा करने का प्रयास किया परंतु मेरा प्रयास विफल रहा।
संसार को संपूर्ण रूप से देखने के बादमेरे जेहन में यह धारणा बनी किगोरस को बॉटने का कार्य-दायित्व लेकरहम अपने-आप पर व्यर्थ ही इतराते हैंक्योंकि इसे ग्रहण करनेवाला कोई नहीं।अतः: मैंने अपना हृदय इस कार्य की ओर से दूसरी दिशा में मोड़ लिया |
गंगागीर की निराशापूर्ण वाणी सुनकरश्री साई ने उनके हाथ में अपने दोनों हाथ रखे और बोले-“हे पूज्य संत! हमारा काम है संसार का भला करना।अत: हम शुद्ध मन से लोककल्याण में लगें, पतितों का उद्धार करें ।

हम जानते हैं कि यह मर्त्यलोक है,यहाँ के लोग अपनी मरजी से कार्य करते हैं,वे संत के मार्गदर्शन की उपेक्षा करते हैं |फिर भी हमें ईश्वर ने जिस कार्य के लिए भेजा है, उसे हम करें|
इस संसार में जिसे मरना है, वह मरेगा |संसार-सागर में जिसे डूबना है, वह डूबेगा |यहाँ जिसे जीना है, वह जिएगा।भवसागर से तरने का दृढ़ संकल्प जिसके मन में है,वह भवसागर पार करेगा |शिंदी की इच्छा रखनेवाला शिंदी पिएगा,गोरस की इच्छा करनेवाले को गोरस मिलेगा ।”

करते जग के आदमी, मन मरजी के काम |इमरत-रस को छोड़कर, पीते शिंदी जाम ।।सागर पार उतारने, आते संत महान ।साई तुझे कराएँगे, अमृत रस का पान।।

इस अध्याय में चौथा संवाद ‘“वासुदेवानंद पुंडलीक श्री साई संवाद’ है|इस अध्याय में श्री साई यह संकेत करते है किईश्वर या सद्गुरू का कोई भी कार्य करना,उनकी भक्ति के बराबर है।कार्य छोटा हो या बड़ा, कोई भी कार्य क्‍यों न हो,उसे मन में दृढ़ निष्ठा एवं आस्था के साथ करना चाहिए,कार्य में कहीं कोई लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए |सद्गुरू के कार्य में लापरवाही बरतना–यह भक्ति के प्रति लापरवाही है।

आप सदगुरू का कार्य कितनी निष्ठा के साथ करते हैं,आपका मन सदगुरू के कार्य में कितना तललीन है,इसकी जानकारी सदगुरू को अपने-आप हो जाती है।भक्ति में लापरवाही नहीं,इमानदारी एवं निष्ठा जरूरी है।तभी भगवद्भक्ति संभव है |

आइये, अब हम “वासुदेवानंद पुंडलीक श्री साई सवाद” का पारायण करते है।

साई भाई हैं बड़े, बंधु सखा ललाम |उनके चरणों में बसे, चारों तीरथ धाम ।।अर्पित करना नारियल, कर सादर प्रणाम |हो जाए न देर कहीं, जल्दी करना काम |।

एक बार राजमहेन्द्री नगरी में गोदावरी नदी के किनारेमहान संत श्री वासुदेवानंद सरस्वती पधारे |उनके दर्शन करने के लिएनांदेड के कई भकक्‍त-जन राजमहेन्द्री आएजिसमें प्रसिद्ध व्यक्ति पुंडलीक राव भी शामिल थे।उन्होंने स्वामीजी की वंदना की,उनसे कुशल-हक्षैेम पूछा |स्वामीजी ने भी उनका सारा हाल-समाचार अवगत किया ।परस्पर वार्तालाप के दौरान शिरडी की सहज ही चर्चा होने लगी।

शिरडी का नाम सुनते ही श्री वासुदेवानंद जी का मन आनंद से भर गया।वे पुंडलीक राव से बोले-“श्री साई मुसलमान हैं, फिर भी वे मेरे ज्येष्ठ बन्धु हैं।मैं जाति का ब्राह्मण हूँ, फिर भी एक मुसलमान मेरे प्रगाढ़ रिश्ते में हैं।ऐसा पूर्वजन्मों से है।यह सत्य है कि कालातीत में भी हम दोनों सन्त थे।युग-युग तक यह सत्य चलता रहेगा ।अतः हिन्दू-मुसलमान में भेद-भाव करना अल्पज्ञता एवं अज्ञान है|” वासुदेवानंद जी ने कहा-“क्या ब्राह्मण के तीन कान होते हैं?क्या मुसलमान के साढ़े तीन कान होते हैं?जातिगत भेद करना दोषपूर्ण है क्योंकि दोनों के अन्दर प्राणधारा एक ही है।मैं तुम्हें यह जो कह रहा हूँ, यह सत्य है,इसे आश्चर्य भरी नजर से या शंका भरी निगाह से मत देखो।श्री साईनाथ महाराज साक्षात्‌ दिव्य संत हैं और मेरे ज्येष्ठ बन्धु हैं।

हे पुंडलीक राव!क्या तुम श्री साईनाथ महाराज के दर्शन करनेकभी शिरडी गये हो?यदि नहीं गये तो शीघ्र उनके दर्शन करो |” वासुदेवानंद जी की बात सुनकरपुंडलीक राव ने दोनों हाथ जोड़करमधुर स्वर में उत्तर दिया-“स्वामी जी! एक माह के अन्तराल में मैं वहाँ जाऊंगा, ऐसा निश्चित है।”


स्वामी वासुदेवानंद जी ने पुण्डलीक राव से कहा-“मेरी एक बात ध्यान से सुनो,तुम शीघ्रातिशीघ्र जाकर श्री साईं के दर्शन करो |एक महीने के भीतर-भीतर जाओ ।चूक न करना, विलम्ब न करना |तुम जब वहाँ जाओ तोमेरी तरफ से यह नारियल उन्हें सम्मान के साथ भेंट करनाऔर मेरी तरफ से उन्हें आदर सहित प्रणाम कहना |
हालांकि मैं एक स्वामी हूँऔर परम्परागत रीति के अनुसारहम स्वामी किसी को प्रणाम या वंदन नहीं करते |श्री साई के सम्मुख हमारी इस रीतिऔर परम्परागत व्यवहार का कोई प्रयोजन नहीं |उनके सामने हमारे सारे बंधन महत्वहीन हैं।

श्री साई एक फकीर हैं, में एक संन्यासी हूँ ।उनके सामने कर्म-अकर्म, रीति-बन्धन, करणीय–अकरणीयआदि का कोई प्रश्न ही नहीं उठता |सूर्य के सामने शुद्ध-अशुद्ध क्या,वह तो अशुद्ध को भी शुद्ध करने की क्षमता रखता है।”

पुंडलीक राव ने स्वामीजी को आश्वस्त करते हुए कहा-“में इसी माह श्री साईं के दर्शन करूँगा |”उन्होंने स्वामी जी से नारियल लेकर कहा-“यह श्री साई को सादर भेंट किया जाएगा।”

पुंडलीक राव एक माह के भीतर हीअपने साथियों के साथ शिरडी के लिए रवाना हो गये।कोपरगाँव से जानेवाली गाड़ी में अभी काफी समय शेष था।सभी को भूख लगी थी, अत: सभी सामने नदी के किनारे नाश्ता करने बैठ गये।

उनके पास पोटली में भूना हुआ चिवड़ा बंधा था।पोटली खोली गई और सभी चिवड़ा खाने लगे।चिवड़ा खाने में तेज था, उसमें मिर्च कुछ अधिक डली हुईं थी।चिवड़े को खाने योग्य बनाने के लिए नारियल निकाला गया,उसे तोड़कर चिवड़े में मिला दिया गयाऔर नाश्ते के साथ उसे खाने के काम में ले लिया गया।

पुंडलीकराव यह भूल गये कि नारियल श्री साईं को अर्पण करने के लिए थाऔर उसे तोड़कर खा लिया गया।दोपहर के समय सभी शिरडी पहुँच गये ।सभी श्री साईं के दर्शन करने मस्जिद की ओर गये।

पुंडलीकराव ने जैसे ही श्री साई के दर्शन किए,श्री साई ने उनसे कहा- “तुम एक अच्छे गृहस्थ होऔर अच्छा गृहस्थ व्यवहार में प्रामाणिकता बरतता है।उसका लेन-देन साफ-सुथरा होता है।मेरे पूज्य दोस्त ने तुम्हें जो नारियलमुझे भेंट करने के लिए दिया था,वह तुम अविलम्ब मुझे दो।मेरे भाई द्वारा भेजे गए नारियल को पाने के लिएमेरा हृदय अत्यन्त उत्सुक हो रहा है।

लेकिन वह नारियल तुम मुझे दोगे कैसे?उसे तो तुमने चिवड़े के साथ मिलाकर खा लिया ।खाते वक्‍त तुम उस नारियल को बिल्कुल ही भूल गयेकि यह किसी की अमानत हैजो किसी को तुम्हें सौंपनी है।मेरे लिए वह नारियल अनमोल सम्पत्ति थीपरन्तु तुमने उसकी हिफाजत नहीं की ।तुमने अपने दुष्ट मित्रों की कुसंगति के कारणमेरा अनमोल खजाना खो दिया।

श्री साई समर्थ के ऐसे वचन सुनकरपुंडलीक राव हक्‍्के-बक्के रह गये |वे श्री साईं के श्रीचरणों में झुक गए।अपने सिर पर अनायास ही दोष लग जाने के कारणवे थोड़े उत्तेजित हो गये और बिना सोचे-समझे बोल पड़े-“महाराज! सचमुच हम नारियल को भूल गये।हमें भूख लगी और तिकक्‍त चिवड़े को मीठा करने के लिएहमने अपनी इच्छा से नारियल तोड़ कर उसमें मिला लिया।वस्तुतः यह मेरी बड़ी भूल है,आपके प्रति यह एक अपराध है।आप मुझे क्षमा करें ।में ऐसा करता हूँ किउस नारियल के बदले आपको दूसरा नारियल लाकर देता हूँ।

पुंडलीक राव दूसरा नारियल लाने के लिए ज्योंहि उठे,साईं ने उन्हें हाथ पकड़कर वापस बिठाया और हँसकर बोले-“पुंडलीकराव! दूसरा नारियल लाने की जरूरत नहीं |वासुदेवानंद जी द्वारा दिया गया नारियल अनमोल था,कोई अन्य नारियल उसकी बराबरी कभी नहीं कर सकता |गोदावरी के पवित्र जल की कीमत अनमोल है,उसकी बराबरी कभी कुए का पानी नहीं कर सकता |अब जो भूल हो गई, वो तो हो गई |तुम मेरे बच्चे हो,अब मैं अपने हृदय में किसके लिए क्रोध करूँ?मेरे क्रोध करने से होगा भी क्या?

टेलिग्राफ और वायरलेस से दूसरी जगह तुरन्त संदेश भेजा जा सकता है,यह सचमुच आश्चर्यजनक है ।परन्तु एक संत ने दूसरे संत के सम्मान में नारियल दिया,इसकी तत्क्षण जानकारी श्री साई को हो गई |यह तो उससे भी अधिक आश्चर्यजनक है ।किस समय, किस जगह पर, क्‍या हो रहा है,इसकी पूर्ण जानकारी सन्त को तत्क्षण हो जाती है।

प्राचीन काल में इस लोक में कुछ ऐसे समर्थ व्यक्ति भी थेजिनको समय, परिस्थिति और घटना का स्पष्ट ज्ञान होता था।वे इस कला को कायम रखे हुए थेऔर अनेक भक्त कहाँ किस हाल में हैं,इसको ज्ञात करने के लिए इस कला का उपयोग करते थे ।जानकारी करने के बाद वे दूर बैठे भक्तों का कल्याण करते थे।उन्हें टेलिग्राफ या वायरलेस की कोई आवश्यकता नहीं थी।

वे अपने पेट की भूख मिटाने के लिए माघुकरी पर आश्रित होतेऔर भोजन के दो ग्रास जुटाने के लिए घर-घर जाकर भिक्षा माँगते |उनके पास न तो पैसा रहता था,न वे मन में पैसे की लालसा रखते थे।ऐसे अकिचन ही दिव्य शक्तियों से सम्पन्न होते हैं,सत्य की साक्षात्‌ प्रतिमूर्ति होते हैं।

कहा-कहाँ क्या हो रहा, इसका किसको ज्ञान ।साईं सब कुछ जानते, साई संत महान।।क्षण-क्षण पल-पल की खबर, उनको रहती ज्ञात।हित-चिन्ता में हैं मगन, सुबह-शाम दिन-रात |

|// श्री सदयुरू सार्ईनाथार्पणयस्तु शुर्थ थवतु /

इति श्री साई ज्ञानेश्वरी चतुर्था अध्याय: //

© श्री राकेश जुनेजा कि अनुमति से पोस्ट किया है।

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