श्री दासगणु महाराज कि रचना – गुरुपठ अभंग

गुरुपाठ के भजन – हिन्दी अनुवाद

अनुवादक – श्रीमती नम्रता बडगे – श्री टिआर माधवन

ऊँ साईराम। मैं नम्रता बडगे और श्री टिआर माधवनजी ने मिलकर श्री दासगणु महाराज कि मुल मराठी रचना गुरुपाठ अभंग ओवियोँ को हिन्दी में अनुवाद किया है। साई भक्तों से कासकर जो मराठी भाषा जानते हैं निवेदन है कि इन हिन्दी पंक्तियों में मुल मराठी ओवियोँ के अनुसार कहीं शब्दों या पंक्तियों में बदलाव करना है, कमेंट बाक्स पर जरूर लिखेंं। धन्यवाद।


गुरुपठ अभंग ।

रुप जिसके सगुण निर्गुण। वो नारायण पुजनिय पहले।।
सगुण सेवा से ही निर्गुण हाथ आए। निर्गुण प्राप्ति पहले नही होए।।
पहले सब सीख्ते क ख बाराखडी। फिर शब्दों को जोड़ वो ज्ञान पाए।।
गणु कहे ऐसी सगुणोपासना। बाराखडी समझाए अध्यात्म अर्थ।। 1

जो गुरु पढाएं वो बाराखडी। भवाब्धी के ताक वही समझना ।।
गुरुसेवा ही है प्रथम सिडी। बहुत कटिन है उसे सम्भालना ।।
सदगुरु कृपा प्राप्त होए। सेवा सहज पुरण हो जाए।।
गणु कहे विनोदी परमात्मा प्रसन्न जब हो। प्रभात की कमी कभी न होए।। 2

कहते सदगुरु कि सेवा बहुतोन्नत। इसकी साक्ष्य है पुराणों में।।
पूर्णब्रह्म राम बेशक कांत। आए वसिष्ठ कि शरण में।।
रुक्मिणी वल्लभ जिस के सांदीपनी। धन्यवाद आप का गुरुदेव गुणी।।
गणु कहे गुरु बिन नर। सच है सिर्फ वो दो पैरों वाला।। 3

निष्ठावान भाव ही देवत फल। नष्ट होजाए अभक्ति का मैल।।
चहाड-दोमुंहा ऐसा नारद मुनि। चारों ओर झाला उद्धारकर्ता प्रह्लाद।।
गोपीचंद ने गुरु को हठी मनुष्य मुसलमान समझा। आगे वो हो गया पुजनिय।।
गणु कहे सोने का भाव तभी आए। जगमें उसकी कसोटी होए।। 4

क्षमा, शांति, दया हो जिस में सफलता पाए। वैसा ज्ञान संपुर्ण वो पाए।।
जीत उसीकी जिसके सिर पर ईश्वर का हाथ हो। यही सदगुरु करनी है।।
बाह्य ढोंग को भुल्ना न कभी। पतंगा की निपुण न चले दीपक से कभी।।
गणु कहे हसं पानी में उतावली। शुद्ध धोएं जैसा दूध।। 5

हीरे और गारा एक ही खदान में। जैसे बद्ध-मुक्त है जग में।।
हीरे को परख निकालते बेचने। जंगली मुर्गा पाँवों से मिलाएं उसे।।
मुमुक्षु को परखे नास्तिक मुर्ग। जंगली मुर्गे को भाए कुडा दाना।।
गणु कहे वही है भाग्यवान। जिसके हितमें हो गुरु चरणों का सेवन।। 6

क्षमाशांतीयुक्त भावब्धी का जहाज। ऐसा है शिर्डी के सदगुरुमहाराज।।
नाम जिसके शोभित बाबा साईं। अनाथों के वही है माई।।
अनाथ सनाथ का भेद नहीं उसके यहाँ। वहाँ सूर्यप्रकाश का क्या चयन करना।।
मेरे गुरुदेव जान्हवी का जल। गणु अर्पित करता ललाट उनके चरण कमल।।7

काया का धारण उँचा किया। छाँदने कि संकेत समझे भक्तजन।।
उच्च ज्ञान जो अध्यात्म सुन्दर। वो ही सेवा सबको दे कल्याणार्थ।।
पर न चोडना बोना विनीत । ये न बडेगा बचपन बिना।।
गणु कहे वर्ण सावला। सदगुरु की लीला बोहत बडी।। 8

सदगुरुदेव ने जल को तेल किए। लाखो दीपक जलाकर दिखाया।।
रखा दीपक पास तकिये के। गुरुमुर्ती तकते पर साऐ।।
उनके कालोचित का अर्थ यही है। कभी न सोये अन्धेरे में।।
गणु कहे माया है घना अंधेरा। इसीलिए ज्ञानदीप प्रज्वलित किया।। 9

शिवविष्णुब्रम्हारुप बाबा साई। भाव दुजा नही मानना कोई।।
सदगुरुराज धूल पाँवों कि। मानो शुद्ध गंगाजल है वही।।
अमृत जैसी बोल निकले मुख से। उसे गीता मान सेवन की मैंने।।
गणु कहे बाबा शुद्ध बसंत कोमल। भक्तों के मीठे बोल बनो तुम्ही।।10

पर्मात्मा की आस जिसे लग जाए। वो देखते चरण पहले।।
अस्थायी सुख को दूर कर। भक्ति के राह ढुंढा कर।।
धृणा गिरगिट को फेंक देना चाहिए। साईमाई पहरा देते हैं संसार को।।
गणु कहे तो भी उनके भक्त हो। सुंदर संसार के सज्जनों।। 11

शिर्डी क्षेत्र समिति बजा़र नही। वहाँ के दुकानदार धर्मात्मा।।
अस्थायी सुख कि खेलने की गुडिया। सभी को फेंक दिए गुरुजी ने।।
क्यों कि उसका कोई नहीं अर्थ। ऐसे में व्यर्थ हैं बच्चे मेरे।।
गणु कहे जोड़ विचित्र हो जाते। सभी भौंरा रुची लेते है ।। 12

कर्म भक्ती ज्ञान बाजार के वस्तु। मुझे जो भी चाहिए, वही लेना है।।
तीनो की किमत एक ही है जाणो। फल तीनों से मिलता एक है।।
भावरुप द्रव्य जिसे चाहिए। देने वाला साई सदगुरु ही दुजा न कोई।।
गणु कहे कीमत सिक्के जान्ने। बाज़ार मे जाकर जाणो।। 13

मार्ग में फल खरीदी कीजिए । फिर पंढरपूर जाकर आनंद लीजिए।।
बाबाजी ने तुकोबा पर की कृपा। तबही वह पंढरी का कृपादृष्टि पाए।।
सांड को पीटते नाम्या सिर हिलाया। भगवान के सामने कच्चा दिखाया।।
गणु कहे खेचर माँ ने। कल्याणार्थ पुजा की नाम्या ने।। 14

निवृत्ति ज्ञान का ईश्वर अवतार। पर गहिनी को किया गुरुवर।।
गुरु कृपा बिन किसी को भी। ना मिला है विठ्ठल चक्रपाणी।।
मनमें आस गर हो पंढरी की। मजबूती से पकड़ें डोर सद्गुरु की।।
गणु कहे उसे न भव का भय। जिसके चित्त में हो सदगुरु के पाँव।। 15

शुकसनकादि नारद अंबरीश। निवृत्ति ज्ञानेश नाम तुका।।
दास तुलसी चोखा जयदेव सांवता। पंत नाथ कबीर वो।।
ज्ञान प्राप्त हुआ पवार विसोबा खेचर। गोरोबा कुम्हार कर्मदास।।
गणु कहे वहीं करोड़ों में चलो। साई चरणों में लीन हो जाए।। 16

हालांकि वो संतों की मूर्ति खो गया हो। आइए साई रुप में देखते हैं।।
त्रिभुवन में जितने भी संत है। सबको साईनाथ मे देख आनंद लिजिए।।
भेदभाव न करे मेरे संतों का। संत शोषशायी प्रत्यक्ष प्रमाण है।।
गणुदास है संतों में अंकित। मिलता हैं उनको कृपा पंढरीनाथ से।। 17

भक्तिरुप गंगा हो जिनके पास। मेरे साई है खडा वहाँ।।
हाथ के इशारे से उठे लोग। आवो फिरो मत जंगलों में।।
मुझे पता है मैं कहां से आया हूं। किस बात केलिए शिर्डी आए हूं॥
पंढरी क्षेत्र में पला बडा। गणु का छलांग होए साई के शक्ती से।। 18

मुहो न विचारे बिन पंढरी जावोगे। तो रास्ते में कांटे चुबेंगे ही।।
पंढरी का रास्ता बहुत ही कठिन। बडे-बडे पहाड है रास्ते पर।।
उसके शस्त्र है मेरे पास। वैसा हृषीकेश कि पहचान।।
गणु कहे जनम जनम नहीं टूटते। परमेश्वर बसे साई के हृदय में।। 19

इसलिए यह अवसर पुकट मत गवाओ। पीछे पश्चाताप न पडना पडे।।
दंभ की गठलीयाँ एक बाजू रखना। विकल्प छोड़ना घातक है जो।।
क्रोध की होली ज्ञान हरा करो। वासना को मारो अभ्यास से।।
गणु कहे ऐसा व्रत का जो पालन करें। उसे सम्भालते साई मेरे।। 20

करो मत नाश इस आयुष्य का। जन्म मानव का फिर से नहीं।
हर जन्म में कन्या बल्पे धर। मैथुन आहार और निद्रा।।
नरजन्म नही ऐसे कृत्य के लिए। बांधना न गांठ मनमर्जी।।
जोडना चाहे जुड़े इस जन्म में ईश्वर से। नरजन्म थोर है गणु कहे।। 21

लोभ मोह माया छोड़ सभी का। धरो चरण सदगुरु का।।
गुरु चरणों में ही है सबकुछ। गुरु बिना नही सार्थकता।।
गुरु काधेनू गुरु मौलिकता। चिंता नष्ट करें चिंतामणि।।
गुरु भक्ति में जो है एक निष्ठा। त्रिलोक में वह श्रेष्ठ गणु कहे।। 22

गुरु चरण में भाव विठूसी अबोला। ऐसे मानव को मोक्ष नही मिलता।।
कध्दू हाथ में पर पत्थर अत्यंत। बांधलो अंत में धात होता है।।

गुरु रुप में देह आत्मा पांडुरंग। किया तो रंग आए एकही जगह।।
एक को छोडे तो एक न हाथ। दोनों की योग्यता एक जैसी।।

गुरु और देव में जब किया भेद। दुःख गठडी लगेगी हाथ।।
गणु कहे इसलिए रहो सतर्क। गुरु परमेश्वर का एक रूप।। 23

साईबाबा और सदगुरु वामन। यह दोनों नही भिन्न एकरूप ही है।।
भाव साधक रखो दोनों में। पर विठाबाई का ध्यान धरो।।
साई-वामन की करना पुजा। रखना सम्मान भूपति का।।
परमार्थ मेँ भक्ति व्यवहार में नीति। संसार विरक्ति गणु कहे।। 24

गुरुपाठ के ये भजन पंचवीस। जाप करने से होए नाश पातक का।।
गुरु के गान गाने से मोक्ष मिले। नही मरता निरथर्क दंभ से।।
साईमहाराज का पकडके हाथ। पार करो खौफ में डुबो मत।।
साई की इच्छा से होता है सबकुछ। गणु के पास बोलना नही।। 25

ऊँ साई नाथाय नमः।।

प्रार्थनाष्टक

कितना भी लूं जन्म कोटी कोटी। क्षमा शांति का तो नही मिलता लेख पोटी।।
ऐसा मोह समा गया चित्त में। मुझे उससे छुडाना साईनाथ।। 1

शिव के भय से काम जो भाया। हमें लग रहा छलने वो यहाँ आया।।
पिनाकीपरी मतलब तु समर्था। मुझे इससे छुडाना साईनाथ।। 2

लोभ मुझे नचाए जगे जगे। इस कारण मन स्थिर नही होता।।
तेरे पाँव उसमें सत से आते। मुझे इससे छुडाना साईनाथ।। 3

भव प्रेम का मुझे बहुत लगे। जैसे गधे को केर मीठा लगे।।
डुब गया जल्दी देदो अपना हाथ। मुझे इससे छुडाना साईनाथ।। 4

क्षमा शांति के उदाहरण देना जन को। जैसे बच्चों को माँ सिखाए।।
नीति घुटी पिनाओ हे समर्था। नमस्कार मेरा तुझको साईनाथ।। 5

सदा सर्वदा चित्त को आनंदी रखे। कभी वासना का बंधन में न बंधे।।
जग में हमारे तु माँ-बाप-त्राता। नमस्कार मेरा तुम्हें साईनाथ।। 6

किस मेँ है हित मुझे समझना। समझे मन को वैसे वो ना चले।।
ऐसा हुआ त्रस्त मैं समर्था। नमस्कार मेरा तुम्हें साईनाथ।। 7

तुम्हें योग्य लगे वो तुम करना। शिशु अपने बाप को ऐसा सिखाए।।
गणु की ही करो मन में हमेशा चिंता। नमस्कार मेरा तुम्हें साईनाथ।। 8

ऊँ साई नाथाय नमः।।

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