श्री साई ज्ञानेश्वरी – भाग 11

श्री सदगुरू साईनाथाय नमः
अथ श्री साई ज्ञानेश्वरी पंचम: अध्याय: | |

श्री साई ज्ञानेश्वरी का पंचम अध्याय ‘भगवदप्राप्ति’ है।
भगवद्‌प्राप्ति का अभिप्राय है—
आत्मा में परम-तत्व का अनुभव करना |
यह असीम भगवद्भक्ति का फल है।

भगवद्प्राप्ति कठिन है, असंभव नहीं |
सद्‌गुरू भगवद्प्राप्ति की युक्ति जानते हैं,
वे सिर्फ योग्य भक्त को इसका तरीका बताते हैं।
सद्गुरू के आशीर्वाद से ही किस्मत का दरवाजा खुलता है।
सद्गुरू प्रसन्‍न हों तो वे जीव को शिव-तत्व की प्राप्ति करवा दें ।
ईश्वर की कपा या ईश्वर का प्रसाद ही भगवद्‌प्राप्ति है।

इस अध्याय में श्री साई के साथ उनके भक्तों के चार संवाद हैं
जिसमें सर्वप्रथम “श्री साई हरिभाऊ संवाद है।
यहाँ भक्त ईश्वर की भक्ति में पूर्णतः: अनुरक्त है,
वह ध्यान में मग्न है,
ईश्वर के स्वरूप में लीन मन ईश्वर के दर्शन करता है।
सद्गुरू भक्त की निष्ठा देखते हैं,
वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होते हैं,
वे भक्त को ईश्वर का दीदार कराने में सहायक होते हैं|
आईये, अब हम “श्री साई हरिभाऊ संवाद” का पारायण करते हैं।

चार बजे हैं भोर के, मन प्रभु चरणन लीन।
प्रकट हुई छवि विट्ठल की, भाऊ दरसन कीन। |

हरिभाऊ पंत दीक्षित नागर ब्राह्मण थे
और उन्‍होंने अंग्रेजी भाषा की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी।
जिस प्रकार से भंवरा कमल के फल पर न्योछावर हो जाता है,
उसी प्रकार से हरिभाऊ श्री साईं के चरणों में पूर्णतः समर्पित थे।
उनका मन पूर्ण रूप से श्री साईं में अनुरक्‍त था।
वे शिरडी में ही रहने लगे
ताकि श्री साई के श्रीचरणों में उनकी आध्यात्मिक उन्‍नति हो सके |

प्रातकाल का समय था|
हरिभाऊ ईश्वर का ध्यान लगाए बेठे थे |
तभी एक अपूर्व चमत्कार हुआ।
उनके ध्यान में विट्ठल की साक्षात्‌ छवि प्रकट हुई |
उन्होंने देखा कि विट्ठटल अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे खड़े हैं |
उनके गले में तुलसी की माला है।

इस छवि को देखकर हरिभाऊ का मन आनंद-विभोर हो गया।
उन्होंने मन-ही-मन कहा-
“यह श्री साईं की मुझ पर विशेष कृपा है
जिसकी वजह से मेरी आध्यात्मिक उन्‍नति हुईं
और मुझे विट्ठल के प्रत्यक्ष दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
हालांकि में इस योग्य नहीं था
परन्तु श्री साई ने मुझे इस लायक बनाकर
श्री हरि के दर्शन करवा दिए |
इस अनमोल आध्यात्मिक लाभ के अलावा
अब मेरी कोई भी अन्य मनोकामना नहीं है।”

दीक्षित आनंद-मग्न थे,
वे मस्जिद आए और उन्‍होंने श्री साई के दर्शन किए |
श्री साई ने हरिपन्त को कहा-
“काका! आज का दिन कितना अच्छा है!
आज के दिन तुम धन्य हो गये।
क्या विठोबा पाटील खुद चलकर तुम्हारे पास नहीं आए!
जो संतवाड़ी के पाटील हैं,
वे संसार का कल्याण करने वाले हैं।
यानि संतों के मन-मन्दिर में निवास करनेवाले ईश्वर संसार का उद्धार करते हैं।
उस विठोबा पाटील के गुणों का वर्णन करने में शब्द भी छोटे पड़ जाते हैं।”

श्री साई के ऐसे वचन सुनकर
हरिभाऊ ने अपने दोनों हाथ जोड़े और कहा-
“हे बाबा! आपके कार्य ही अद्भुत एवं अनोखे हें ।
आपकी लीला को कोई नहीं जान सकता,
आपकी लीलाओं को तो सिर्फ आप ही जान सकते हैं।

हे श्री साई! हम आपके बच्चे हैं, आप हमारी माँ हैं।
एक बच्चे के लिए अच्छा क्‍या है
और अच्छा क्‍या नहीं है,
इसे सिर्फ माँ का हृदय ही जानता है।
हमारे हित में क्‍या है,
हमारे लिए कल्याणकारी क्‍या है,
इसे केवल आप ही जानते हैं ।
हे श्री साई! मैं आपका एक अबोध बालक हूँ।
में आपसे क्‍या विनती करूं?
में तो अपना विश्वास आपके श्रीचरणों में रख चुका हूँ।
अब चरण-शरण आए बालक का उद्धार करना आपके ही हाथ में है।’

आगे हरिभाऊ श्री साई से कहते हैं-
“हे श्री साईं! विठोबा ने मुझे साक्षात्‌ दर्शन जरूर दिए
किन्तु ऐसा खेल आपने ही तो खेला,
ऐसा संभव करने वाले तो आप ही हैं।
हम कठपुतली का नृत्य देखकर कठपुतली की प्रशंसा करते हैं
परन्तु कठपुतली को नचानेवाला जो सूत्रधार है,
वही प्रमुख होता है।
अतः हमें कठपुतली के सूत्रधार की प्रशंसा करनी चाहिए |
हे श्री साई! आप एक कुशल सूत्रधार हैं,
आप ही एक पूर्ण समर्थ बाजीगर हैं ।
आप जैसा चाहते हैं, वैसा ईश्वर से कार्य करवा लेते हैं।
ईश्वर (विठोबा) आपके हाथ का खिलौना है।
आपकी जैसी इच्छा होती है,
उसी अनुरूप ईश्वर को कार्य करना पड़ता है।

हे श्री साई!
आपकी मूर्ति जग के चप्पे-चप्पे में व्याप्त है,
आप सर्वव्यपी हैं।
आप संसार की हर वस्तु में दर्शन दें,
मैं संसार की जो भी वस्तु देखूँ
उसमें मुझे सिर्फ आपकी ही छवि दिखाई पड़े।
इसके अलावा मैं आपसे और क्‍या माँगूं?
इसके सिवा अन्य कुछ भी पाने की मेरी चाह नहीं |”

श्री साई ने कहा-
“काका! मन में चिन्ता न करो ।
तुम्हारे मन की मुराद शीघ्र पूर्ण होगी |
गुरू जिस पर प्रसन्न हो जाएँ,
उसकी मुलाकात ईश्वर से भी वे करवा देते हैं।
गुरू चाहें तो वे भक्त को
ईश्वर का साक्षात्कार करवा सकते हैं।
जिसने सिर्फ गन्ने की खेती की हो,
क्या उसे गन्ने का एक प्याला रस पीने क॑ लिए नहीं मिलेगा?
अवश्य ही मिलेगा ।

जिसने भक्ति की फसल उगाई हो,
उसे भला भक्ति का मीठा फल केसे नहीं मिल सकता?
अवश्य ही मिलेगा ।
जिसके ऊपर भागीरथी प्रसन्‍न हो और
जिसको स्वयं भागीरथी ही उपलब्ध हो जाए,
उसे क्‍या शीतल जल की कमी रह सकती है?
कभी भी नहीं।
जिसके हाथ में विशुद्ध केसर हो,
उसके हाथों में सुगन्ध अपने आप रच-बस जाती है।
उसे क्‍या सौरभ की कमी रह सकती है?
कभी भी नहीं।

हे हरिभाऊ!
तुम अध्यात्म के मार्ग पर समर्पित होकर चल रहे हो,
तुम्हारा आध्यात्मिक लाभ निश्चित है ।
तुम्हारी आध्यात्मिक उन्‍नति अवश्य होगी,
इसमें रंच-मात्र भी संदेह नहीं |

जब देखूँ मैं आपको, दिखते मुझको ईश।
केवल देखूँ आपको, ऐसा दें आशीष ||

इस अध्याय में दूसरा संवाद “मेघा श्री साई संवाद” है|
यहाँ मेघा नाम का एक भक्त है।
वह सद्गुरू साई को भगवान शिव मानता है
और उनकी नियमित रूप से विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करता है|
भक्त को कितना ही श्रम क्‍यों न करना पड़े,
कठिनाइयों के आँधी-तूफान भी क्‍यों न आएँ,
परन्तु वह भक्ति की लौ को कभी मन्द नहीं पड़ने देता ।
सद्‌गुरू उसकी दृढ़ निष्ठा से प्रसन्न होते हैं।
भक्‍त को अपने आराध्य शिव का प्रत्यक्ष दीदार होता है।
सदगुरू अपने हाथ से भक्त को एक शिवलिंग देते हैं।
यह सदगुरू की विशेष कृपा है ताकि भकत की भगवद्भक्ति उत्तरोत्तर बढ़े
और एक दिन वह शिव-तत्व में समाकर ईश्वर के साथ एकाकार हो जाए।

आइये, अब हम ‘”मेघा श्री साई संवाद’ का पारायण करते हैं-

आता जाता मील दस, प्रतिदिन गोदा तीर ।
साई को शिव मानकर, अर्पित करता नीर |।

मेघा नाम का एक गुजराती ब्राह्मण था।
गायत्री में उसकी आस्था थी,
वह भक्ति-भावपूर्वक पुरश्चरण का पारायण करता था।
मेघा के सर पर लम्बे-लम्बे बाल थे, वे जटाजूट की तरह लगते थे।
वह लम्बे कद का था और उसका शरीर बलिष्ठ था।
वह ‘हर-हर महादेव” का निरन्तर जप करता था।
मेघा प्रतिदिन प्रातटकाल शीतल जल से स्नान करता था।
फिर अपने शरीर पर भभूत लगाता था।
पश्चात्‌ मृगछाला पर बैठकर वह पूजा के लिए तत्पर होता था।
वह अपने ललाट पर त्रिपुंडाकार चंदन लगाता।
उसमें तप और भक्ति का तेज लक्षित होता था
और वह खुद जालंधर यानि शिवशंकर भोलेनाथ के समान लगता था।

मेघा प्रतिदिन मस्जिद जाता और
दिन में तीन बार श्री साई के दर्शन करता |
मेघा कहता- “वह जब भी श्री साई के दर्शन करता है
तो श्री साई उसे शिव के रूप में दिखाई पड़ते हैं।’

मेघा बिल्वपत्र चढ़ाकर श्री साई का पूजन करता,
उनके सम्मुख बेठकर ‘ऊँ नमः शिवाय’ का जप करता
और आदर सहित श्री साईं के चरणों में अपना मस्तक झुकाता |
मेघा प्रतिदिन पाँच मील की दूरी तय करके गोदावरी के तट पर जाता
और वहाँ से श्री साई को स्नान कराने के लिए जल लेकर शिरडी लौटता।
लोगो के पूछने पर मेघा कहता-
“श्री साई त्रयंबकेश्वर हैं।
उनको स्नान कराने के लिए गोदावरी का पवित्र जल ही सर्वथा उपयुक्त है,
अन्य कोई जल श्री साई को स्नान कराने के योग्य नहीं है।”
मेघा शिवभक्‍त था।
उसका रोम-रोम भगवान शिव की पूजा-आराधना एवं भक्ति में लीन था।
वह श्री साई को भी भगवान शिव ही मानता था।

श्री साई भी अदभुत थे।
वे मेघा की भक्ति-भावना को निरन्तर विकसित करते जा रहे थे |
मेघा जिस रूप में उनकी पूजा करता था,
वे उससे वही पूजा स्वीकार कर लेते थे,
यहाँ तक कि मेघा जब उनकी ओर देखता था
तो श्री साई उसे शिव के रूप में अपना रूप दिखाते थे।

मेघा की असीम भक्ति-भावना को देखकर कपामूर्ति श्री साई उसपर प्रसन्न हुए ।
उन्होंने मेघा से कहा-
“यह लो! मैं तुम्हें आशीर्वाद के साथ यह शिवलिंग दे रहा हूँ।
तुमने हृदय से शिव को पूज्य आराध्य एवं परमेश्वर माना है।
अब तुम इस शिवलिंग की नित्य पूजा करना।
तुम्हारी आध्यात्मिक उन्‍नति होगी, तुम्हें भगवद्प्राप्ति होगी।’

मेघा का यह संक्षिप्त में वर्णित चरित्र है।
मेघा की तरह कोई भी व्यक्ति,
चाहे वह ईश्वर के किसी भी स्वरूप की उपासना करता हो,
श्री साई उससे आहत या प्रतिहत नहीं होते थे।
श्री साई तो भक्त से केवल आस्था, श्रद्धा और भक्ति चाहते थे।
भक्त किस स्वरूप में श्रद्धा रखता है,
इससे श्री साई को कोई मतलब नहीं था।

श्री साई की भक्ति की अद्भुत विशेषता है।
कोई शैव भक्त श्री साईं को प्रणाम करता,
श्री साई उसे शिव के रूप में साक्षात्‌ दिखाई पड़ते |
कोई वैष्णव भक्त उन्हें प्रणाम करता,
श्री साई उसे केशव के रूप में दिखाई पड़ते |
मुसलमान भक्तों को वे पाक परवरदिगार के रूप में नजर आते।
जिसकी जैसी आस्था होती,
उसे श्री साई उसी रूप में दर्शन देते और
उसे श्री साईं से वैसा ही अनुभव प्राप्त हो जाता।

जिसकी जैसी आस्था, जिसका जैसा प्यार ।
साई सब की भावना, करते हैं स्वीकार ||

इस अध्याय में तीसरा संवाद “नाना श्री साई संवाद’ है।
यहाँ सदगुरू श्री साई अपने भक्त को यह बताते हैं कि
सद्गुरू के हाथ से भक्त को तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु भी
आशीर्वाद के रूप में प्राप्त हो जाए तो यह भक्त का सौभाग्य है।
सद्‌गुरू के हाथ से दी गई वस्तु अनमोल होती है,
वह अमृत-तुल्य होती है,
वह भक्त में शक्तिपात भी कर सकती है
और भक्त को अपने समान गुण-संपन्‍न बनाकर
उसे भगवदप्राप्ति भी करा सकती है।

आइये, अब हम “नाना श्री साई संवाद” का पारायण करते हैं—

साईं मस्तक के तले, हरदम रहती ईट।
प्यारी ज्यादा प्राण से, थी बाबा को ईंट।।

चांदोरकर ने देखा कि श्री साई हमेशा अपने पास एक ईंट रखते हैं।
वे उस ईंट से बहुत प्यार करते हैं,
उनके लिए वह ईंट प्राणों से भी अधिक मूल्यवान एवं प्रिय है।
यहाँ तक कि श्री साई रात में जब सोते हैं,
तो ईंट पर अपना मस्तक रखकर ही सोते हैं।
यह देखकर चांदोरकर को काफी आश्चर्य हुआ।

चांदोरकर ने कुछ विचार किया
और उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर श्री साई से कहा-
“बाबा! आप पक्की ईंट पर सर रखकर सोते हैं,
यह आपके सर के लिए आरामदायक नहीं है।
आपके मस्तक को आरामदायक एहसास हो,
इसके लिए मैं चाहता हूँ कि आप मस्तक के नीचे एक मुलायम तकिया रखें |
आप आज्ञा दें, मैं आपके लिए एक अच्छा तकिया लेकर आऊं।”

श्री साई ने चांदोरकर से कहा-
“नाना! इस ईंट की मूल्यवत्ता का आकलन कोई नहीं कर सकता।
तुम्हारे लाखों नरम, मुलायम तकिए इस ईंट की बराबरी नहीं कर सकते |

यह ईंट मुझे मेरे गुरू ने दी है।
यह ईंट गुरू के हाथों से दिया गया अनमोल उपहार है।
हे नाना! तुम इस ईंट के महत्व को नहीं समझ सकते |
इस ईंट का मूल्य संपूर्ण ब्रह्मांड से भी अधिक है।
गुरू के हाथ से आशीर्वाद-स्वरूप या
उपहार-स्वरूप दी गई छोटी-से-छोटी
और साधारण-से-साधारण वस्तु भी अनमोल होती है,
उसकी बराबरी संसार की कीमती-से-कीमती वस्तु भी नहीं कर सकती ।

हे नाना! इस ईंट का मैं हमेशा ध्यान रखता हूँ।
इस ईंट पर मैं हरदम ध्यान लगाए रहता हूँ।
यह ईंट ही मेरा प्राण है।
जबतक यह ईंट है, तबतक मेरा जीवन है।
जब यह ईंट नहीं होगी, मेरे प्राण भी इस शरीर में नहीं होंगे |
गुरू के आशीर्वाद से ही शिष्य का अस्तित्व है,
गुरू का आशीर्वाद ही न रहे तो शिष्य का भला क्‍या अस्तित्व है?

आगे श्री साईं ने नाना से कहा-
“सदगुरू के चरणों में जिसका मस्तक रहता है,
उसका फिर काल भी बाल-बांका नहीं कर सकता |
अतः मैं प्रतिदिन अपना मस्तक गुरू के चरणों में रखे रहता हूँ।

मेरे लिए यह ईंट गुरू के चरण हैं,
ईश्वर के चरण हैं।
मेरा यह मस्तक इस समर्थ और शक्तिशाली ईंट पर सदा झुका रहेगा,
हमेशा टिका रहेगा।
यह ईंट मुझे हमेशा शक्ति और लोकोपकारी क्षमता देती रहेगी |
यह ईंट गोदावरी के जल की तरह है
जो अपने पावन परमाणुओं से भक्तों
को शक्ति एवं उदारता की क्षमता देता रहता है।”

श्री साई के ऐसे वचनों को सुनकर चांदोरकर भाव-विभोर हो गये |
उन्होंने ईंट पर सादर मस्तक झुकाया |
उन्होंने कहा- “हे श्री साई! आप धन्य हैं।
आपने हमें ईंट की महिमा के साथ-साथ
सद्गुरू और ईश्वर की महिमा का भी ज्ञान करा दिया।

सद्गुरू अपने हाथ से, देता जो उपहार |
उसके आगे तुच्छ है, हीरक-मोती हार ।।

सद्गुरू चरणों में सदा, रखो टिकाकर शीष |
बाल न बॉका कर सकें, कालजयी आशीष |।

इस अध्याय में चौथा संवाद ‘मौली साहब रतन जी श्री साई संवाद’ है|
यहाँ यह बताया गया है कि सद्गुरू से मुलाकात का अवसर मिलना अत्यंत दुर्लभ है।
पूर्वजन्म के पुण्योदय के कारण ही
हमारी मुलाकात किसी सद्गुरू से होती है।
सद्गुरू के दर्शन करना परम सौभाग्य की बात है।
सद्गुरू मिल जाएँ तो समझो कि किस्मत का दरवाजा खुल गया।

भक्त सदगुरू के चरणों में अपने को समर्पित कर देता है।
यही समर्पण भावना भगवद्‌प्राप्ति में सहायक बनती है।
सद्गुरू या ईश्वर के लिए हम कोई भी कार्य करें,
वह सद्‌गुरू या ईश्वर की सेवा ही है।
छोटी-से-छोटी सेवा भी कभी निष्फल नहीं जाती,
वह भगवद्‌प्राप्ति में सहायक बनती है।

आइये अब हम ‘मौली साहब रतन जी श्री साई संवाद” का पारायण करते हैं—

मौली साहब ने कहा, रतन सुनो यह बात |
साईं सा दूजा नहीं, वही जगत का नाथ ।।

तुम शिरडी को जा रहे, होगा शीघ्र प्रभात |
साईं के आशीष से, ढल जाएगी रात।।

रतन जी नामक एक पारसी व्यक्ति नांदेड़ में रहते थे ।
वे नांदेड़ से रवाना होकर शिरडी के श्री साईं के दर्शन करने जा रहे थे |
उसी दिन उन्होंने अपने घर पर प्रियजनों को चाय पर आमंत्रित किया था।
उसी समय मौली साहब नाम के एक संत उनके आवास पर पधारे।|

मौली साहब का आगमन वाटिका में वसंत के आगमन के समान था।
सभी ने उनका स्वागत किया और उन्हें उच्चासन पर बिठाया।|
सभी ने चाय और अल्पाहार लिया।
इस अवसर पर रतन जी ने मौली साहब को पुष्पमाला पहनाई, उन्हें नारियल भेंट किया।
रतन जी से सम्मान पाने के बाद मौली साहब मुस्कुराए
और उन्होंने अपना वरदू-हस्त रतन जी के सर पर रखा |

मौली साहब ने रतन जी से कहा- “अए नेक इंसां! तुम शिरडी कू जल्द जाना।
साईं बाबा से हमारी बंदगी कहना, अमारा सलाम बाबा को अदब से अर्ज करना |
आए पियारे रतन जी।
इस सारे जहां में साईं बाबा के माफिक कोई दूसरा फकीर नई |
तेरा वहाँ जाना, इसे अपना किस्मत समजो |
तुम्हारा शिरडी कू जाना, मतलब कि तुम्हारे तकदीर खुलने का वकत आ गया।

मौली साहब का आशीर्वाद लेकर रतन जी शिरडी को रवाना हो गये |
रतन जी शिरडी पहुँचे और उन्होंने श्री साई के दर्शन किए।
केवल्यदानी श्री साई ने तत्काल रतन जी से कहा-
“तुम नांदेड़ से सीधे शिरडी आए हो, तुमने अच्छा किया कि तुम आ गए।
मैं तुम्हारा भार खुद वहन करूँगा
और तुम्हारी चिंता सदा के लिए दूर कर दूँगा।
तुम मुझे कितनी दक्षिणा दे रहे हो?
तुम मुझे जो भी दक्षिणा देना चाहो, वह उदार मन से दो |

रतन जी ने श्री साईं के सम्मुख डरते-डरते कहा-
“मेरी जितनी सामर्थ्य-शक्ति है,
उतनी में आपको दक्षिणा अवश्य दूँगा।
आप ही कृपा करके बताइए कि
में आपको कितनी दक्षिणा दूँ?
आप जो भी कहेंगे,
वह मैं आपको सादर समर्पित करूँगा |”

इतना सुनते ही श्री साईं बोले-
“मेरे दक्षिणा मॉँगने से पहले
तुम इतनी राशि मुझे दे चुके हो।
अब उसके अलावा शेष इतनी राशि और बचती है।
अब तुम जल्दी से मुझे अवशेष इतनी राशि दक्षिणा में दे दो |

रतन जी ने श्री साई की बात सुनकर मन में सोचा-
“में आजतक कभी भी शिरडी नहीं आया।
मैंने पहले कभी श्री साईं के दर्शन नहीं किए |
फिर पूर्व में मैंने श्री साई को कोई दक्षिणा कहाँ दी?
श्री साई कैसे कहते हैं कि मैंने उन्हें पहले इतनी दक्षिणा दे दी है?”
इस चिन्तन को एक बार विराम देते हुए
रतन जी ने श्री साईं के बताए गए हिसाब के अनुसार
शेष राशि उन्हें तत्काल दक्षिणा में समर्पित कर दी ।
श्री साई का हिसाब उनके मस्तिष्क की पहुँच से बाहर था।

दूसरे दिन श्री साई ने रतन जी को हिसाब समझाने के लिए
संकेत दिया और कहा-
“अरे रतन जी!
अभी दो दिन पहले तुम्हारे यहाँ कोई मेहमान आए थे,
तुमने उनकी मेजबानी की थी न!
उस मेजबानी को याद करो |
फिर तुम्हारे मन का सारा संशय दूर हो जाएगा।”
श्री साई ने रतन जी को इतना संकेत देकर उदी-आशीर्वाद दिया
और वापस नांदेड़ प्रस्थान करने की आज्ञा दी।

श्री साई से प्रसाद ग्रहण कर रतन जी शिरडी से नांदेड़ लौट आए |
श्री साई ने उन्हें दक्षिणा के संदर्भ में जो हिसाब-किताब बताया था,
वह उनके अंतरमन में अब भी एक पहेली बनकर घूम रहा था।
एक दिन रतन जी अपने घर-खर्च का हिसाब
खाता-बही में देख रहे थे |
उसमें उन्होंने देखा कि घर-खर्च क॑ अलावा
किसी अन्य कार्य के लिए आवश्यक खर्च का विवरण
वहाँ लिखा हुआ है।

वह खर्च मेजबानी का खर्च था।
उनके घर में कोई मौली साहब आए थे,
उनके स्वागत में कुछ खर्च लगा था।
यह खर्च उतना ही था,
जितना श्री साई ने शिरडी में बैठे-बैठे उन्हें बताया था।
मेजबानी में लगे खर्च को श्री साईं ने
पूर्व में प्राप्त की गईं दक्षिणा के रूप में बताया था।

श्री साईं द्वारा बताई गईं राशि उतनी ही थी,
जितना उनके बही-खाते में मेजबानी का खर्च लिखा हुआ था।
यह देखकर और समझ कर रतन जी को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उनके मन का संशय दूर हो गया।
रतन जी ने मन-ही-मन कहा-
“हे श्री साई!
आपकी शक्ति और सामर्थ्य अगाध व अदभुत है।’

श्री साई कहते हैं-
“अच्छे कार्यों के लिए जो भी खर्च किया जाता है,
वह सब मुझ तक पहुँचता है,
वह सब मेरे निमित्त ही खर्च होता है।
इसे चिरन्तन सत्य मानो |
यदि तुम सद्‌गुरू या संत का पूजन करते हो,
सद्भावना से उनकी भक्ति करते हो तो
वह श्री साई के निमित्त ही किया गया पूजन है,
वह श्री साई की ही भक्ति है।
तुम्हारा पूजन और तुम्हारी भक्ति श्री साई तक पहुँचती है।

तुमने मौली साहब की पूजा एवं उनका आदर-सत्कार किया,
वह सब मेरी पूजा एवं मेरा आदर-सत्कार है।
उनमें और मुझमें कोई फक॑ नहीं |
दोनों दो नहीं, एक ही हैं।
ईश्वर का स्वरूप कोई भी हो,
मगर हर स्वरूप में ईश्वर एक ही होता है।

सद्गुरू संत उपासना, आदर या सत्कार।
सत्कर्मों में भक्ति है, साई करे स्वीकार |।

// श्री सदृयुरुसाईनाथार्पणयर्तु/ शुभय थवतु
झति श्री साई ज्ञानेश्वरी पंचयी अध्यायः //

अगला भाग ईश्वर का ऐश्वर्या।
© श्री राकेश जुनेजा कि अनुमति से पोस्ट किया है।

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